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कविता

चटनी आमा के – कबिता

नंगत के बइहाये मऊर, ए दे पर बर लटलट ले फरगे।
देस के भुइंया ला अमरे बर, आमा के डारा निहरगे॥

मंदरस किरवा कस लइकन, झूमगे, देख आमा के कचरी।
जमदूत कस मुछर्रा रखवार, हावय ननमुन के बयरी॥

कीरा परय ये आमा ल, दुब्बर ल दू असाढ़ सही भाव।
कब खाबोन एला ते, वोदे कऊंवा करत हे कांव-कांव॥

छक्कत ले खाये रेहेन, वहा पईंत वो आमा चौंसा।
बिहाव के झरती म, सुरता हावय, वो घर आवय मौसा॥

गंज गुरतुर टेटकू घर के आमा, हावय नानुक गोही।
अड़बड़ अम्मट ठाकुर घर के, जिहां धराय हे बटलोही॥

देसी आमा के गरती, कहां होगे भरती, नोहर होगे।
नवा के हे सोर, जुन्ना खोजे नइ मिलय, मोहर होगे॥

सरी दिन के अम्मट आमा, बंधाय कलमी, मिट्ठा होगे।
सिरतोन जानय ते जनइया, अनजान बर सिट्ठा होगे॥

अलग ये मंजा-मेंगोसेप, मुरब्बा, अचार, चटनी, अमरसा।
मंझनिया के चरबन बर, धरके लइकन जावथें मंदरसा॥

झांझ ह भूंजत हे, लाई-सही, कभू झोला झन सपड़य॥
आमा के पनहा, भूंजे गोंदली, ए झोला ला रगड़य॥

सास्तर ह कहिथे, आमा उगवइया ह बेटवा ल पाथे।
अउ बगिच्चा लगवइया ल, भगवान रामेच्च हर भाथे॥

अल फांसो, बैंगनफल्ली, फंजली, नीलम, दसहरी, लंगड़ा।
आमा-अमिया के बिहाव म, माइपिल्ला नाचत हें भंगड़ा॥

टी.आर.देवांगन
उरला बीएमवाय
दुर्ग

आरंभ मा पढव : – सृजनगाथा के चौथे आयोजन में ब्‍लॉगर संजीत त्रिपाठी सम्मानित पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’

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