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कहानी

जनम भूमि : कहिनी

किसमत कभू धीरे-धीरे बदलथे, कभू उदुपले। ऊंकरों गांव ले लाने मोटरा म सुख के जोरन जोराय लगिस। ऊंकर गुत्तुर-गुत्तुर छत्तीसढ़िया बोली अउ मीठ-मीठ चहा-पानी म अइसन आनंद आय के एक बेर जे पी डरे ते लहुटती म चार गिराहिक अउ जोरे।
जिनगी के खींचतान, पेट बर पेज-पसिया के संसो मनखे ल कहां ले कहां पटक देथे। वाह रे! सन् पैंसठ-छैंसठ के दुकाल दाना-दाना बर लुलवागे मनखे अउ चारा-पानी बर तरसगे गाय गरूवा। गांव के गांव उसलगे। का किसान, का बसुंदरा, अपन नोनी-बाबू के मुंहू म चारा डारे बर घर म तारा ठोंक के कमाय -खाय बर दूरिहा-दूरिहा भगागे। कोनो उत्ती, कोनो बुड़ती कोनो रकसहूं कोनों भंडार। रामअधार घलो अपन हाथ-गोड़ धरके छीता संग मोटरा-चोटरा बांध के टिकटाक रेंगत नीरा अउ चार-पांच बछर के हेमू ल धरके गांव के देवता धामी ल बिनती बिनोत-‘जी जिनगी रही ते कभू ले फेर लहुट के आबो महराज, हे ठाकुर देव, हे शीतला महमाई कहिके मनउती मनात आंसू ढारत निकरगे…।’
दुरूग के टेसन म पहुंचते ठेकादार मन के चंगुल म फंसगे। रात भर रेलगाड़ी म चढ़ के नागपुर के टेसन म उतरिन। कभू ये सहर, कभू वो सहर बीता भर पेट के संसो म घूमत रहिगे। ठेकादार जिहां बसादे जाड़-घाम, झड़ी-पानी सहत नान-नान कुंदरा म जिनगी पहाय लागिन अउ लहू पछीना ओगरावत अपन मयारू लइका मन ल पोसे लागिन। दू महीना चार महीना म ढीहा बदल जाय। हवा पानी बदले त फटले लइका मन ल जुड़, सरदी- खांसी अउ जर-बुखार धरय। रामअधार अउ छीता संसो फिकर म रहिता सूतय नहिं। बुखार म तावा कस तीपे लइका ल भगवान भरोसा छोंड़ के दूनों परानी निकल जाय। हेमू दिन भर कइसनो करके चुचकार के भूलियारय। फेर ये बेरा तो हेमुच ह फटले बीमार परगे अउ अइसे परिस ते दिन-रात बुखार उतरबे नइ करय। ‘अब पेट बर करय ते लइका बर।’ कमइय्या अकेल्ला होगे। छीता के काम म जवइ छूटगे। कमइ के पइसा पेज-पसिया के पुरति होय। ‘येती लइका के जी पोट-पोट करय, वोती महतारी- बाप के पेट भूख-पियास म पोट-पोट करय।’ एकातकनी कनकी ल पेज असन ओगराय अउ पियंय दूनों परानी। पेट म सीथा रही तभे थन म दूद ओगरही? नीरा दिन भर चीथय। पेट नई भरय त दिन भर रोवय-पदोवय।
एक दिन रतिहा हेमू जादा बीमार होगे। सहर के बड़े अस्पताल म भरती करीन। डॉक्टर मन किहिन- बच्चे को मोतीझिरा हो गया है। आज तक क्या कर रहे थे? कहिके गजब खिसियाइन। रामअधार सुनिस त बक् खागे। जी सुखागे ओकर। हाथ-गोड़ जुड़ागे। छीता के पोटा कांपगे, जी धकधकागे। इही ल कथे दूब्बर ल दू असाढ़। अब लइका के इलाज करवाय ते रोजी-रोटी कमावयं।
ये दे ठेकादार करा फेर हाथ लमइस। लानिस पइसा डॉक्टर अउ भगवान के दया ले हेमू के मुंहू म पानी अइस तब रामअधार अउ छीता के जी हाय के लागिस।
लइका मन अब उडानू होंगे। हेमू होटल ठेला म जूठा कप- पलेट धोवत-मांजत बाढ़त गीस। नीरा महतारी बाप संग ईंटा गारा डोहारत चेलिक होगे। घुरवा के दिन बहुरथे तइसने ऊंकरो भूख भगागे, जम्मो दु:ख भगागे। दू-चार पइसा संदूक म सकलाय लागिस। सोचिन अब गांव-घर लहुट के का करबोन? घर-कुरिया तो खंडहर परगे होही। इहां बनिच करबो, उहां बनिच करबो। तेकर ले एक्के ठउर म रहिके कुछू धंधा पानी करे जाय। रामअधार अउ छीता के उम्मर संग जांगर घलो पछलती आगे। ठेकादार मन तो ऊंकर लहू ल चुरोना बोरे कथरी, चद्दर कस गदगद ले निचो डारे रिहिस। एक जगा देख के टीना-टप्पर छाके चहा-पानी के दुकान खोलिन। चाराें परानी दिन भर के बिकरी बट्टा म अपन गुजर-बसर चला के उही छंइहां म गुटुर-गुटुर चारपहर रतिहा पहाय लागिन।
किसमत कभू धीरे-धीरे बदलथे, कभू उदुपले। ऊंकरों गांव ले लाने मोटरा म सुख के जोरन जोराय लगिस। ऊंकर गुत्तुर-गुत्तुर छत्तीसढ़िया बोली अउ मीठ-मीठ चहा पानी म अइसन आनंद आय के एक बेर जे पी डरे, ते लहुटती म चार गिराहिक अउ जोरे। फेर एक बात अउ नीरा के बिछलत चढ़त जवानी अउ बड़े-बड़े लिबलिबात आंखी ह मनचलहा मन ल अउ मोहय। पानी-पियास के ओखी म आय सुग्घर गोरी नारी नीरा हाथ के पानी पीके अपन जी ल जुड़ाय। चहा-पानी पियंय, हंसी-ठिठोली लगांय अउ काली अउ आबो काहत जाय।
चार-पांच साल म हेमू के होटल पनकगे। टीन-टप्पर जम्मो धीरे-धीरे ईंटा-पथरा म बदलगे। जलेबी, रस, बरा-भजिया, समोसा, इडली बनइय्या मिसतिरी आगे। पलेट धोवइय्या अलगेच होगे। सुग्घर-सुग्घर खुरसी, टेबुल लगगे। रामअधार डोकरा अब गद्दी म बइठ के सिरिफ पइसा झोंके।
एक दिन रतिहा छीता ह रामअधार कर अपन मन के भेद ल गोठियइस- अब लइका मन सगियान होगे। रंग-रंग के लोगन आथे। नोनी ल निच्चट निहारथें, मोला चिटको बने नइ लागय। बर बिहाव के जोखा ल मड़ातेव। एक दिन बेटी नीरा दुलहिन बनके रोवत-करलात बिदा होगे अउ हांसत-कुलकत आगे हेमू घर के बहू बिन्दा।
‘कोनो बहू के डेहरी मा पांव राखथे फूरथे नहिं ते उजरथे।’ घरवाला ह कोनो चार पइसा कमइया होगे त बहू मन के मटकइ अउ टेस ल झन पूछ- हेमु के होटल म तो पइसेच पइसा बरसय। फेर कहिथय न ‘छोटे नदिया खल बौराई’ तइसने हेमू ल होगे। धन दोगानी ह सकलाथे तब अपन संग ओला उरकाय बर दू चार ठन अवगुन बरोबर राहू घलो आथे। हेमू मंद मउहा, गांजा पी के भुकवाय लागिस, सट्टा, जुआ, चित्ती म मन लगाय लागिस। पछीना गलाय पइसा ल उरकाय लागिस। महतारी बाप बरजय त आंय-बांय बके लागिस। लाल-लाल आंखी देखाय लागिस। लिखरी-लिखरी बात म झगरा-लड़ई मताय लागिस। दाई-ददा समझाय- तोरेच भलइ बर कहिथन रे बेटा। चार पइसा कमाते त तेहर मंदमडहा म उड़ावत हस। भरे ल ढरफावत हस। एकक बूंद म गधरी ल भरे हन। बारा कुंआ म बांस डारेन त तोला बंचाय हन। ‘फेर मूरख काला माने।’ बिनास काले बिपरीत बुध्दि कहिथंय। सियान मन बरजथे ते सिरतोन आय। ‘दुनिया के ऊंच-नीच घाम छंइहां सब्बो ल जानत रहिथे। धाम म ऊंकर चूंदी-मुड़ी नइ पाके हे। सब्बो दु:ख ल तापे हे।’
रोज दिन बाप महतारी संग किटिर-काटर होवयं। गिराहिक मन ऊंकर झगरा ल अउ रस लगाके देखय सुनय अउ मजा लूटय। एक दिन हेमू ह अपन दाई-ददा ल घर ले निकाल दिस- ये घर के डेहरी म पांव झन राखहू नहिं ते में दाई-ददा नई गुनहूं। रामअधार किहिस- ठीक हे बेटा तहूं आज ले दाई-ददा मरगे समझ के मुड़ ल मुड़वा डारबे। खात खवई घलो कर डारबे। महूं असल बाप के बेटा अंव तोर डेहरी म झांके बर नइ आंव। चल डोकरी…।
हव… जा… जा… हेमू अउ तमक के किहिस। महतारी कंदर-कंदर के रोवय यहा का होगे भगवान। बहू-बेटा के परसादे बूढ़त काल म बने सुभीन लगा के खाबो, सुख पाबो- सोंचेन ते उल्टा-पुल्टा होगे। हमीं बनाएन, हमरे घर ले निकारा होगे। कहां जाबो डोकरा यह उम्मर म अब तो जांगर घलो नइ चलय। में नइ जांवव। सुख देवय ते दु:ख दे, दुलार के दे ते दुतकार के दे अपनेच बेटा बहू ये। छीता दंदरत-दंदरत किहिस।
भीख मांग लेबो वो डोकरी फेर ये दरवाजा म कुकुर असन लात खात जुटहा बरोबर नइ परे राहन। चल हमरो हाड़ा म दम हे। ठेला पेल लेबो, बनी-भूती कर लेबो। इहां सोन के सीथा खात रेहेन ते पसिया घलो मिलही।
नइ जान डोकरा कहां-कहां भटकबो।
नइ जास ते तहूं इहां सर। डोकरा मरगे कहिके चूरी ल कुचर डार पटा ल हलावत रहिबे। में तो एक घरी नइ राहंव कहिके रेंग दिस।
कभू अइसन भाखा नइ केहे रिहिस मोर जोड़ी ह। माटी मा मिलतखानी काबर अपजस करंव कहिके डोकरी मोटरा-चोटरा ल धरिस धुर्रा ल झर्रात टुडुंग-टुडुंग उठ के आंसू ढारत रेंगिस।
‘कभू महतारी के सुरता आही रे बेटा! ते खोज लेबे, हियाव कर लेबे, पइसा म खोजे महतारी के मया नइ मिलय। बाप भले कुबाप हो जही बेटा, महतारी कभू कुमाता नइ होय। सात धार के दूद पियाहंव बेटा आज लतिया के निकाल देस। तभो मोर एक झन दुलरवा बेटाअस तोर बर मोर हिरदे म मया उमड़त हे।’
सुसक-सुसक के छीता डोकरी लहुट-पहुट के काहत जाय रेंगत जाय.. अगोर न डोकरा कहां जाबो ते? कहां लेगथस डोकरा?
अरे ते मोर पीछू-पीछू रेंग डोकरी जिहां अइसन कुल म कलंकी बेटा रहिथे, अइसन घातिया के तीर म रहना घलो पाप हे।
डोकरा टेसन म डोकरी ल बइठार के टिकिस कटा के रेलगाड़ी म बइठ गे। जनम के अड़ही छीता का जाने रेलगाड़ी कहां आथे कहां जाथे? डोकरा दुख संताप म अइसे बूड़गे कि डोकरी सन एक भाखा नइ बोलय।
रेलगाड़ी ले उतर के जब पैडगरी रसता म अइस तब डोकरी ल थोरिक आकब आवत गिस। नरवा ढोड़गा, बाग-बगिच्चा ले देखिस त आज ले पच्चीस-तीस बरस पहिली रेंगे रद्दा सुरता आवत गिस।
अपन गांव के सियार ल खूंदते डोकरा रामअधार डंडा सरन गिर के परनाम करिस अपन ‘जनमभूमि’ के। छीता घलो दूनों हांत म अंछरा ल धरके अपन भुइंया के पांव परस किहिस- ‘जी जिनगी रिहिस भगवान त फेर बूढ़त काल म तोर सरन म लहुट के आगेन।’
डोकरी-डोकरा के आंसू टप-टप धरती म चुहिगे।
देवेन्द्र कुमार सिन्हा ‘अजाद’
बोरई, दुर्ग