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कहानी

दुखिया बनगे सुखिया – राघवेन्द्र अग्रवाल

तइहा-तइहा के बात ये एक ठन गांव म एक झन माई लोगिन रहय। भगवान ह वोकर सुख-सोहाग ल नंगा ले रहय। वो ह अकेल्ला अपन जिनगी ल जियत रहय। वोकर एक झन बेटा रहय, नाव रहिस लेड़गा। ‘जइसना नाव तइसना गुन’ तभो ले वोकर दाई ह वोला अड़बड़ मया करय। दिन जात बेर नि लागय। नानकन ले बड़े होगे। महतारी ह वोकर लेड़गई ले संसो म परगे । कमाय-धमाय बर जांगर ह नइ चलय। ढिल्ला गोल्लर कस गिंदरत रहय।
वोकर दाई सुकवारो ह मन म भंजाइस के अब ये टूरा के बिहाव ल कर देना चाही। सुआरी, लइका के मया म सुधर जाय त सुधर जाय। अइसे बिचार के वोकर बिहाव ल कर दिस। अपन कमाय पूंजी ल उछाह के मारे खरचा कर दिस। घर म सुघ्घर ‘बोहो’ आगे। सियनहिन खुशी के मारे अपन बोहो ल कांही नि कहय, न कांही करन दय। सबे बूता ल अपनेच्च करय। कथें न -‘अति सबे जघा वर्जित हे।’ ये परेम ह सुकवारो खातिर परान लेवा होगे। थोरकेच्च दिन म घर के महमहई ह कपूर साही उड़ियागे। वोकर बोहो दुखिया ह निच्चट निठल्ली होगे। कांही सास ह जोंगतिस तेला नइ करय अउ अपन आदमी करा रात के अंधियार म दू के चार बतावय। वोकर मनसे ह रोज-रोज के कान भराई म बउरागे अउ अपन दाई ल अन्ते-तन्ते कहे लागिस। का करय बपरी ह एक मुठा खावय अउ घर के कोंटा म परे रहय। एक झन बोहो-बेटा, काकर करा अपन दु:ख ल गुठियाव। चुप्पे सहत रहय।
सुकवारो ल लागय अब बेटा ह सुधर जाही तव बेटा सुधर जाही फेर एक लइका के बाप बनगे तभो ले वोकर गिंदरई ह नि छूटिस। ‘काम के बेर कहुं जाय अउ खाय के बेर पहुंच जाय।’ कथे न-‘जे भाग म लिखे रथे तइसने हे होथे’ अइसे गुन के बपरी ह राम रचि राखा को करि तर्क बढ़ावहि साखा। अइसे गुन के बपरी ह कले चुप संझा होय के रद्दा ल देखत रहय, अउ रात म चार घड़ी थके मन ल हल्का करत रहय।
अपन गोसइन के कहे म आके लेड़गा ह अपन दाई संग लड़ई-झगड़ा करते रहय। एक दिन अइसना आइस के वो ह अपन दाई ल अलगिया दिस। का करय बिचारी ह, बूढ़त काल के करलइ नइ सहावय। येती बेटा-बोहो के हालत अइसे होगे ‘उधार के खवई अउ पैरा के तपई’ न पेट भरय न जाड़ भागय। गुने लागिन अब का करे जाय?
सुकवारो करा एक नागर (10 एकड़) के भुंइय्या रहय जेला आखिरी समे म वोकर मनसे ह अपने लइका के लेड़गई ल देख के अपन सुआरी के नाव म करवा दे रहय ते कारन म लेड़गा के दाई ह वो जमीन के मालकिन होगे अउ अधिया-रेगहा दे के अपन गुजारा ल करत रहय।
भरे तरिया जुखागे। वोकर बोहो के चेत म ए बात आइस, के अब का होही? कहूं सास ह ये भुइयां ल बेच दिही त हमन बिन पाना कस डारा हो जाबो। सास ल अपन बस म कर अउ चीज बस ल झपट ले। रात के नींद ह नि परिस। बिहनहा उठतेच्च अपन सास करा गिस अउ पांव ल परिस। अब रोज के ये बूता होगे। सास के सेवा सारिका म कांही कसर नि राखिस। बने-बने खजाना वोकर कपड़ा लत्ता के जतन करना। मूंड ल कोरना-गांथना, रतिहा सुते के बेर वोकर पांव चपकना। मन लगाके अपने बूता ल बनाय बर वोकर सेवा करे लागिस। अपन बोहो के बदले सुभाव ल देख के सुकवारे ल कुछ समझ नि परिस। गुनिस अपनेच्च ताय। भगवान ह सद्बुध्दि दे दिस बने होगे। महतारी-महतारी होथे। लइका भले बहिरफट हो जाय फेर महतारी के मया ह कमती नइ होवय। ‘कु-पुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’ अइसे महतारी के परेम ह होथे।
सुखिया के सेवा ल देख के सुकवारो ह अपने पीरा ल भुलागे। समे देख के एक दिन दुखिया ह अपन सास ल कथे, ‘नि सुनव हो! हमन रथन तेन घर ह ओदरत जात हे। लागथे कोनो दिन चपका के मर जाबो त लेजवइय्या घला नि मिलही। ये छितका कुरिया ह कहुं बन जातिस त सबे माई-पिल्ला बनेसुख म रहितेन। ये कुरिया ल कइसे बनावन। इही संसो म तुंहर बेटा ह खाय पियय घला नहीं। ‘जिमि अमोघ रघुपति कर बाना’। दुखिया के मुंह ले निकरे बात ह रामबान होगे। दाई के हिरदे टघलगे। महतारी, महतारी होथे।’
‘मुझे गले लगा ‘माँ’ बसती है औरत के अंदर।’ देती उड़ेल निज व्यथा भूल वह अपना प्यार समंदर॥ मोला अइसे लागिस के महतारी धरती साही छिमा करथे अउ अपन जिनगी के सबे सुख ल अपन संतान ल निछावर कर देथे। वो भाव ल मे ह उपर के पंक्ति म लिखे हंव।
बोहो के सास सुकवारो ह किहिस- ‘बोहो’ तुमन दु:ख झिन पावा। मे तो नंदिया तीर के रुख होगेंव कोनो दिन ढलंग जाहां। मोर नांव म जेन घर -जमीन हे वोला अपन बेटा के नांव म चघवा देत हावां। अंधरा ल का चाही दू ठन आंखी। बोहो चुलकई-कुलरई ल का कथस वोला अइसे लागिस के ‘चार पदारथ कर जस मांही।’ पासा ह ठउका वोकरे पाीर म परे रहय। ये दे दुसरइय्येच्च दिन अपन घर-दुआर, भुइंयाय, भारा सबे ल अपन बेटा लेड़गा के नांव म चघवा दिस। अब का कथस वो दिन सुरहुत्ती के अंजोर ह वोकर अंगना म बगर गे रहय। बने खजेना कलेवा बनाइन। दूनो परानी अउ टूरा ससन भर खाइन। अउ बुढ़िया सास ह? टुकुर-टुकुर देखत मुसकियावत रहय।

राघवेन्द्र अग्रवाल
(खैरघटा)
बलौदाबाजार