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कविता

बइरी जमाना के गोठ

काला बताववं संगी मैं बैरी जमाना के गोठ ल,
जेती देखबे तेती सब पूछत रहिथे नोट ल,
कहूँ नई देबे नोट ल, त खाय बर परथे चोट ल,
काला बताववं संगी मैं बैरी जमाना के गोठ ल।

जमाना कागज के हे, इहिमा होथे जम्मो काम ग,
कही बनवाय बर गेस अधिकारी मन मेर, त पहिली लेथे नोट के नांव ग,
अलग अलग फारम संगी सबके फिक्स रहिथे दाम ग,
अउ एक बात तो तय हे, जभे देबे नोट तभे होही तोर काम ग,

ऊपर ले नीचे खवाय बर परथे,
लिखरी लिखरी बात बर तो चपरासी ल पटाय बर परथे,
चपरासी मन घलो कम चौतरा नई राहय, कथे
कुछ ले दे के मामला ल निपटाय बर परथे,
साहब ल अपन आदमी हरे कइके बताय बर परथे,

गिधवा बरोबर ताकत रहिथे, भिखमंगा लबरा अधिकारी मन,
कब आवय उंकर मेर, अनपढ़ अज्ञानी, अक्कल बुध के नादानी मन,
गरीब के मेहनत नोच खाथे ये जालिम शिकारी मन,
जतका माँगथे ओतके दे देथे, भोला भाला अनारी मन,

संगी हो अभी बात इहे तक नई रुके हे,
नोट के तो मया में घलो अब्बड़ चर्चा हे,
जघा जघा छपे मिलहि तोला एकर परचा हे,
अउ तोर मयारू तोर संग तभे चलही,
जब तै करबे ओकर ऊपर खर्चा हे।

धर्मेन्द्र डहरवाल (मितान)
सोहगपुर जिला बेमेतरा