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बसंत बहार : कोदूराम “दलित”





हेमंत गइस जाड़ा भागिस ,आइस सुख के दाता बसंत
जइसे सब-ला सुख देये बर आ जाथे कोन्हो साधु-संत.
बड़ गुनकारी अब पवन चले,चिटको न जियानय जाड़ घाम
ये ऋतु-माँ सुख पाथयं अघात, मनखे अउ पशु-पंछी तमाम.
जम्मो नदिया-नरवा मन के,पानी होगे निच्चट फरियर
अउ होगे सब रुख-राई के , डारा -पाना हरियर-हरियर.
चंदा मामा बाँटयं चाँदी अउ सुरुज नरायन देय सोन
इनकर साहीं पर-उपकारी,तुम ही बताव अउ हवय कोन ?
बन,बाग,बगइचा लहलहायं ,झूमय अमराई-फुलवारी
भांटा ,भाजी ,मुरई ,मिरचा-मा , भरे हवय मरार-बारी.
बड़ सुग्घर फूले लगिन फूल,महकत हें-मन-ला मोहत हें
मंदरस के माँछी रस ले के,छाता-मा अपन संजोवत हें.
सरसों ओढिस पींयर चुनरी,झुमका- झमकाये हवयं चार
लपटे-पोटारे रुख मन-ला, ये लता-नार करथयं दुलार.
मउरे-मउरे आमा रुख-मन ,दीखयं अइसे दुलहा -डउका
कुलकय,फुदकय,नाचय,गावय,कोयली गीत ठउका-ठउका.
बन के परसा मन बाँधे हें,बड़ सुग्घर केसरिया फेंटा
फेंटा- मा कलगी खोंचे हें, दीखत हें राजा के बेटा.
मोती कस टपकयं महुआ मन,बनवासी बिनत-बटोरत हें
बेंदरा साहीं चढ़ के रुख – मा गेदराये तेंदू टोरत हें.
मुनगा फरगे,बोइर झरगे,पाकिस अँवरा ,झर गईस जाम
“फरई – झरई , बरई – बुतई” जग में ये होते रथे काम.
लुवई -मिंजई सब्बो हो गे अउ धान धरागे कोठी-मा
बपुरा कमिया राजी रहिथयं ,बासी- मा अउर लंगोटी- मा.
अब कहूँ,चना,अरसी,मसूर के भर्री अड़बड़ चमकत हें
बड़ नीक चंदैनी रात लगय डहँकी बस्ती-मा झमकत हें.
ढोलक बजायं ,दादरा गायं, गायं ठेलहा-मा दाई- माई मन
ठट्ठा,गम्मत अउ काम-बुता,सब करयं ननद-भउजाई मन.
कोन्हों मन खेत जायं अउ बटुरा-फली लायं भर के झोरा
अउ कोन्हों लायं गदेली गहूँ – चना भूँजे खातिर होरा.
अब चेलिक-मोटियारिन मन के,खेले-खाए के दिन आइस
डंडा – फुगड़ी अउ रिलो – फाग , नाचे-गाये के दिन आइस.
गुन,गुन,गुन,गुन करके भउंरा मन, गुन बसंत के गात हवयं
अउ रटयं ‘राम-धुन’ सूवा मन,कठखोलवा ताल बजात हवयं .
कवि मन के घलो कलम चलगे,बिन लोहा के नाँगर साहीं,
अउहा -तउहा लिख डारत हें,जे मन में भाय कुछू कांही.
होले तिहार अब त हवय , हम एक रंग रंग जाबो जी,
“हम एक हवन,हम नेक हवन” दुनिया ला आज बताबो जी.
एकर कतेक गुन गाई हम,ये ऋतु के महिमा हे अनंत
आथय सबके जिनगानी- मा, गर्मी,बरखा,जाड़ा,बसंत.

कोदूराम ‘दलित’
कविता कोश ले साभार