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कहानी

अपन-अपन समझ




बरसाती दोपहरी म अपन अंगना के परछी म सुभीत्ता बइठे-बइठे दयावती सोचत रहिस- ‘तीजा, हमर मन के सबसे बडे तिहार। ए बछर के तीजा म..।’ दयावती ल एक-एक बात, अपन हिरदय म आरी चले कस लागय।

ए दारी नवा कालोनी के नमिता अउ पुरानी बस्ती के अचला तीजा म मइके नइ जा सकिन। त वोला, जउन वोकर मन के दूर के रिस्ता के मौसी होथे, तीजा के बिहान म ‘मइके के पानी’ पिये खातिर, वो दूनो ल घर म बुला ले रहिस। तीजा के निरजला उपास के सेती हालत अइसने पस्त, फेर तीन दिन के रौताइन के नई आय से भंडवा-बरतन के ढेर लगे रहे। मांजे के जांगर नइ चलिस, दयावती के? कइसे करं? तभेच नवा-नवा लुगरा पहिरे, बने सजे-धजे नमिता-अचला खुसी-खुसी आगे। अचानक दयावती के खयाल म आइस। गोलू के जनम दिन म वोकर नानी ह थारी दे रिहिस। अलमारी म रखे हे। एकझन बर तो हो जाही। अइ दूसर के खातिर…? अरे हां, स्टेनलेस स्टील के आए ले पीतल के थाली पेटी म धरे हे। बने साफ-सुथरा। वोहा काम आ जाही। दयावती के परेसानी मिटिस। वोला राहत मिलिस।

तिजहारिन नमिता-अचला बने छक के खाइन। दूनो ल तिखुर खूबेच बने लगिस। तिखुर वाले कांच के बटकी ल देखत-देखत अचला कहिस – ‘कटोरी कतेक सुन्दर हे मौसी ! कहां से ले? मौसी कुछ कहतिस ऐकर पहली नमिता बोल उठिस- ‘कटोरीच ह नई अचला! तिखुर ह घलो खूबेच बने हे। गजब के स्वादिस्ट। कमाल के हाथ हे मोसी के। मोला तो लगत हे तिखुर खाते जांव अउ चांट-चांट के कटोरी ल घलो खा जांव। गद्गद् मौसी हांसत-हांसत कहिस- तुमन ल बने लगिस त महु ल बने लगिस। मोर जी जुडागे।

जब नमिता ह अंगना के झूलना म गोलू के संग झूल-झूल के वोला पहाडा रटात रहिस, तभे अचला मौसी तिर भीतर म आइस। वोकर मुंह फूले रहिस। दयावती चौका से बरतन मन ल लावत-लावत लहक के कहिस- का बात हे अच्चू! कइसे चुप-चुप लगत हस? अचला एकदम गुस्सा के बिफरिस- मौसी! तेहा मोर अपमान करे बर मोला काबर बुलाय? अपमान? दयावती बक खागे। का कहत हस अचला! मेहा भला तोर काबर अपमान-वपमान करहूं। मेहा तो तोला हरदम..। बीचेच म अचला हाथ मटका के तमक गे- हां, हां। ऐकरे मारे तो तेहा नमिता के आगू मोला पीतल के थारी म परोसे अउ वोला…। वो नमिता ल चमचामत स्टेनलेस स्टील थारी म। अइसन भेदभाव? वोकर सम्मान, मोर…?




अचरज म परे दयावती बोला समझाय के कोसिस करिस के असल म अचला! रौताइन के नइ आय ले थारी-वाली सब जूठा परे हे। अइ काली जुअर के थके मांदे मेहा मांज नइ सकेंव, वोकर सेती..। बस-बस रहन दे मौसी ! अपन चलाकी ल। फेर मुंह बना के करु-करु बोले लगिस। ‘वुही अपन बेटी ला बुला-बुला के हलुवा-पुडी, मिठई खवा। अइसन मोर वो टूरी के आगू बेज्जती करे बर, मोला आइंदा ले झन बलाबे। मेहा ये चलेंव। अचला भूमभूमात चले गे।

नमिता, गोलू ल पहाडा रटा के आइस त दयावती ल अकेल्ला देख के पूछिस- अचला कहां हे मौसी? उप्पर म टीवी देखत हे का? नइये, वोहा चलदीस गुस्सा के। काकर से गुस्सा के? मोर से अउ का। मेहा वोला बुला के अपराध कर डारेंव। तोर से गुस्सा गे? मौसी ! असल म तो मेहा तोर से नाराज हंव। बहुतेच गुस्साए हंव। तहूं नमिता? अब तहूं अपन कारन सुना डर? नमिता दयावती के तिर म पीढा म बइठ के कहिस- मेहा तो नाराज ऐकर सेती हंव के तेंहा मोला गैर समझ ले। अतेक दूसर समझ ले जउन मोला नवा थारी स्टेनलेस स्टील म परोसे अउ अचला ल परोसे अपन खास, अपन घर के समझ के बड परेम से पितलहा टठिया म। त मेहा नाराज हंव के मोर मौसी अतेक दिन-बछर के बाद घलो मोला अपन नई मानिस, परायेच जानिस।

दयावती मुच-मुच मुसकात नमिता के मेंहदी लगे हाथ ल अपन हाथ म धर के बोलिस- अच्छा भई। ले मोर से गलती होगे, बड गलती होगे, मोला माफी देबे। नमिता हांस डरिस- फेर एक सरत म मौसी ! मोला एक कटोरी तिखुर देय बर परही, जान ले। दयावती खुस- खुस बोलिस- वो आगू फ्रीज म तो रखे हे। जा, खुद निकाल ले अउ हां ! एक कटोरी मोरो बर लाबे नम्मू।

गिरीश बख्‍शी
ब्राम्हणपार, राजनांदगांव