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कविता

एकलव्य

हर जुग म
होवत हे जनम
एकलव्य के।
होवत हे परछो
गउ सुभाव के
कटावत हे अंगठा
एकलव्य के।
हर जुग म
हर जुग म रूढ़ीवादी
जात-पात छुआछूत
भारत माता के हीरा अस पूत
कहावत हे जनम-जनम
अछूत।
हर जुग म
आज इतिहास गवाह हे
एकलव्य बर
द्रोनाचार के मन म
का बर दुराव हे?
का हे दोस? नान्हे फूल के
काबर ये दुसार?
दलित माता के कोख ले जनमे
हे न! अतकेच के गुनाहगार
का इहि ये गुनाह?
होवत हे हीनमान, अइताचार
संत गुनी के भारत म
बरन बेवस्था के सिकार।
एकलव्य
हर जुग म
कब मिटही रूढ़ीवाद?
ये बरन बेवस्था
कब तक होहै एकलव्य के?
गउ सुभाव के परछो
कब फरियाही?
कब हटही आंखी ले?
भरम के धुंधरा
नहीं!
हटही धुंधरा भरम के
जब जागही जमाना
अउ होही पूजा सुकरम के
भले लम्बा लडे ल परही लड़ाई
फेर एक दिन पटाही
ऊंच-नीच के खाई
आही सुध जन-जन म
बरही दीया गियान के।
हिरदे म होही उजियारा
होहय मान गुनवान के
अब नइए जादा उहु दिन दुरिहा
जब लेके आही सुरूज
हितु पिरितु के नवा बिहनिया।

अनिल जांगड़े गौतरिहा
कुकुरदी बलौदाबाजार