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कविता

एक पाती सुरूज देवता के नाव

जग अंधियारी छा गे हवय, मन ला कईस उजियारंव गा।
आ जतेस तै सुरूज देवता, बिनती तोर मनावंव गा॥
कारी अंधियारी बादर, हफ्ता भर ले छाय हवय,
शीत लहर के मारे, देहें सरी कंपकपाए हवय।
यहां मांग-पूस मं, सावन कस बरसत हे,
कोन परदेस गे तैं, दरस नई मिलत हे॥
कतेक दु:ख ला गोठियावंय मय, काला गोहरावंव गा।
आ जतेस तै सुरूज देवता, बिनती तोर मनावंव गा॥
धान के झरती मिंजई, अउ ओनहारी बगियावत हे।
खेत अउ बियारा मं, किसान हा रिरियावत हे,
बछर भर के मिहनत हा, पानी म मिल जाही।
अईसन बादर मं त, परभु कुछु हाथ नई आही,
हमर संदेस ला सुन लेते देवता, कईसे तोला मनावंव गा॥
आ जतेस तै सुरूज देवता, बिनती तोर मनावंव गा।
यहा मेला-मड़ई के दिन मं, अंगना-दुवारी लिपाए निही,
सगा-पहुना ला कईसे समोखबोन, बरी-बिजौरी सुखाए निही।
बने जगजग ले अंजोरत देवता, अब तो निहार लेतेस।
हमर मन के सबो दु:ख ला, ते हा बिसार देतेस,
ये मोर बिनती के पाती, कईसे तोला पहुचावंव गा।
आ जतेस तै सुरूज देवता, बिनती तोर मनावंव गा॥

सुधा शर्मा
ब्राह्मणपारा राजिम