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कविता

एक बीता पेट बर

परउ परिनिया
दूनों परानी ।
धरे बासी
चटनी पानी ।
कोड़े फेंके
ढेला ढेलवानी ।
पेरथें जांगर
तेल कस घानी –
एक बीता पेट बर ।
तिरवर मंझनिया ,
तपत घाम ।
भूंजत भोंभरा
लेसत झांझ ।
पेलत झेलत
कूदत डंगोवत ।
लहकत डहकत
तलफत झकोरत –
एक बीता पेट बर ।
टूटगे कनिहां ,
हाय राम ।
सुख हे सपना
दुख के काम ।
बुधरू बुधनी
बेटा -‌ बेटी ।
उघरा नंगरा
मांगे रोटी –
एक बीता पेट बर ।

-गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा

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6 replies on “एक बीता पेट बर”

बहुत ही बढ़िया रचना बधाई हो जय जोहार

सुग्घर रचना देवांगन जी…बधाई हो

सुघ्घर कविता । एक बित्ता पेट बर , जिनगी ल पेरत – पेरत , जिनगी ह सिरा जाथे फेर जीते – जियत मनखे के तृष्ना हर कभु नइ सिरावय । बहुत – सुन्दर वर्णन करे हावय ग । मार्मिक – कविता ।

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