Categories
कविता

कबिता : बसंत गीत

मउरे आमा गमके अमरइया
झेंगुरा गावथे छंद।
गुन गुनावत भंवरा रे
चुहके गुरतुर मकरंद॥
प्रकृति म समागे हे, ममहई सुगंध।
आगे संगी येदे आगे रे, रितु राज बसंत॥
पेड़ ले पाती हा झरगे हे।
तेंदू लदा-लद फरे
बोईर बिचारी निझरगे हे।
परसा ललियावत खड़े॥
चना गहूं झुमय नाचय जी, मउहा माते मंगत।
आगे संगी ये दे आगे रे, रितु राज बसंत॥
मुड़ मं मउर खाए आमा।
बने दुलहा-डउका
गावय गारी बरोड़ा
पाये ठउका मउका॥
उलुहा पाना पंखा डोलावय जी सुरूज करे परछन।
आगे संगी ये दे आगे रे रितु राज- बसंत॥
नई जावय गरभ गुमाने हा,
नई जावय रे- मान।
माटी के काया हा नई जावय,
जाथे मीठ जुबान॥
दया मया गठियाववजी, साखी पारथे संत।
आगे संगी ये दे आगे रे, रितु राज बसंत॥
राजेश चौहान
फोटू गूगल ले साभार