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कविता

कबिता : बसंत रितु आथे!

हासत हे पाना डारा।

लहलहात हे बन के चारा॥
कुद कुद बेंदरा खाथे।
रितु राज बसंत आथे॥

चिरई चिरगुन चहके लागे।

गुलाबी जाड़ अब आगे॥

लहलहात हे खेत खार।

रुख राई लगे हे मेड़ पार॥

पेड़ ले अब गिरत हे पान।

अइसे हे बसंत रितु के मान॥

टेसु सेम्हरा कस फूल फूलत हे।

कोयली ये डार ले ओ डार झूलत हे॥

झिंगरा मेकरा सब कहय।

बसंत ऋतु हरदम रहय॥

न पानी न बादर घाम।

दुख शासर न काम॥

फुलगे आमा डारा।

कुहकय कोयली बिचारा॥

उड़त हे आसमान म फुतका।

कूद-कूद कोलिहा बजाय चुटका॥

फूल मेर तितली जाथे।

भउरा तको गुन गुनाथे॥

सरसों फूल खेतभर विवरा छाथे।

रितु राज बसंत आथे॥

श्यामू विश्वकर्मा

नयापारा ”डमरू” बलौदा बाजार