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कविता

कविता : पथरा

KUBERसंगी हो!
पथरा तो पथरा होथे
फेर विही ह जिनगी के अटघा घला होथे।

जानइया मन बर विहिच म प्रेम हे
धरम-करम-नेम हे
दया-मया अउ पीरा हे
जिनगी ल गढ़े बर अनमोल हीरा हे
जिये-मरे के सीख हे
फेर अड़हा मन बर
करिया आखर भंइस बरोबर
सबो एकेच् सरीख हे।

ये हर सच आवय, कि –
मंदिर पथरा से बनथे,
मंदिर के सिढ़िया पथरा से बनथे
मंदिर के भगवान पथरा से बनथे
बांध पथरा से बनथे
मकान पथरा से बनथे
मरे पीछू मठ पथरा से बनथे
रस्ता-सड़क सब पथरा से बनथे।

बिगड़े काम घला पथरच् से बनथे।

जउन पथरा से ये सब बनथे
वो सबो एके जइसे होथे क?

पथरा के न कोनों माथ होवय
न हाथ होवय
न किस्मत के कोई रेखा होवय
न कोनों जात-पेखा होवय।

पथरा के जात
अउ औकात ल आदमी ह बनाथे,
पथरा के किस्मत ल आदमी ह लिखथे।

पथरा ल भगवान, आदमी बनाथें
पथरा ल बांध, आदमी बनाथें
पथरा ल मकान, आदमी बनाथें
पथरा से रस्ता, आदमी बनाथें
पथरा से काम घला आदमिच् बनाथें।

पथरा ह सबले बड़े हथियार ए
हमर जिनगी के रखवार ए
पथरा के भीतर आगी लुकाय रहिथे
पथरा के भीतर जिनगी लुकाय रहिथे
येला जानिन तउन मन आदमी बनिन
मंदिर अउ भगवान गढ़िन।

संगी हो पथरा के ताकत ल परखव
येकर अंतस म लुकाय जिनिस मन ल देखव
अउ मन म गांठ बाँध लव, कि –
पथरा ले आगी,
सोना, चाँदी अउ हीरा आदमिच् ह निकालथे।

वो पथरा
जउन ह आदमी के मुठा म बँधा जाथे
जउन ल ताकत भर के फेंक देथे वो ह
समय रूपी अगास के वो पार
वो ह बजुर बन जाथे
वोकरे भीतर ले निकलथे चिन्गारी
पैदा होथे आगी
अउ विही म लिखा जाथे इन्कलाब
सिरजथे घरम-करम,
सभ्यता, संस्कृति अउ संस्कार
विही पथरा से लिखाथे
नवा जुग के नवा इतिहास
अउ बनथे सब काम।

वो पथरा ह सबले अलग होथे
मंदिर के भगवान ले घला अलग।

संगी हो!
हमला अपन काम बनाना हे
रस्ता, बांध अउ मकान बनाना हे
तब?
मुठा म पथरा तो धरेच् ल पड़ही
पथरा ल समय रूपी अगास के वो पार
मारेच् ल पड़ही।

काम सधाय बर,
रस्ता बनाय बर
वो पथरा ह का काम के
जउन ह मंदिर म माड़े रहिथे?

वो पथरा के जरूरत हे
जउन म इन्कलाब लिखाय रहिथे।

संगी हो!
आज जेखर हाथ म पथरा नइ होही
वो ह खुद पथरा बन जाही।

कुबेर

2 replies on “कविता : पथरा”

वाह कुबेरजी आपके कविता म गंभीरता, सरसता अउ संदेस सब्बो समाय हे , आपके कलम ल साधुवाद

दिलीप साहू संगवारी सेवा सहकारी समिति कोडेवाsays:

कुबेर जी के कविता पढेव जिनगी के भुलाय रस्‍ता ल देखाय के उदिम करिस
धन्‍यवाद कुबेर जी

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