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कहानी

कहा नहीं

चंपा ल आठ बजे काम म जाना हे; वोकर पहिली घर के चौंका-बर्तन करना हे, बहरइ-लिपई करना हे, नहाना-धोना हे अउ येकरो पहिली नवा बाबू के घर जा के चौंका-बरतन करना हे। अँगठा के टीप ले छिनी अँगठी के गांठ मन ल गिन के समय के हिसाब लगाइस; एक घंटा बाबू घर लगही, एक घंटा खुद के घर म लगही, घंटा भर नहाय खाय अउ तैयार होय म लगही; बाप रे! तीन घंटा, तब तो पाँच बजे मुँधेरहच् ले उठे बर पड़ही; बेर तो छै बजे उवत होही?
आज पहिली दिन हे, देखे जाही।
बेर उवे के पहिलिच् पहुँच गे चंपा ह नवा बाबू के मुहाटी। कपाट बंद रहय, का करे? सोंचिस, पहिली घरेच् के काम ल निपटा लिया जाय; लहुट गे।
घर के चौंका बरतन करके फेर आइस, बेर चढ़ गे रहय फेर नवा बाबू के खोली के कपाट ह उघरेच् नइ रहय। असमंजस म पड़ गे चंपा। पछतावा होइस, कहाँ-कहाँ के पचड़ा म पड़ गेंव।
सुकवारो काकी ह देखत रहय, कहिथे – चौंका-बरतन करे बर आय हस बेटी?
देख न काकी, कतिक बेर उठही, कतिक बेर बर्तन-भांड़ा ल माजहूँ , का करहूँ , कब काम म जाहूँ ; का करों, मोर तो मति काम नइ करत हे?
कपाट ल ढकेल के, नइ ते संकरी ल बजा के देखस नहीं बेटी, बाबू-मुँशी मन के अइसनेच् ताय; वोती बारा बजे ले जागहीं, येती नौं-दस बजे ले सुतहीं।ष् काकी ह अपन अनुभव ल बताइस।
चंपा ह संकरी ल आसते ले बजाइस। मन म डर समाय हे, बाबू कहूँ नराज मत होवय।
भीतर ले अवाज आइस – ,खुल्ला हे, ढकेल के आ जा।
चंपा ह कपाट ल आसते से धकेलिस, कपाट ह खुल गे।
मुहाटी तो खुल गे फेर चंपा के गोड़ ह उठय तब न। भीतर म अकेला जवान मरद सुते हे, अकेल्ली मोटियारी भला कइसे भीतर म जाय? तन-बदन म झुरझुरी कस रेंग गे, छाती ह जोर-जोर से धड़के लगिस, सांस ह जोर-जोर से चले लगिस। मन म फेर पछतावा होइस, काबर हामी भरिस होही वोहा ये काम बर?
चंपा के आँखी म नवा बाबू के चेहरा-मोहरा ह झूल गे; कालिच तो पहिली घांव देखिस हे वोला; छब्बीस-सत्तााइस साल के उमर होही, गोरा रंग हे, सुंदर अकन गोल चेहरा हे, चस्मा म कतका सुंदर दिखत रिहिस? सफेद रंग के कमीज, करिया रंग के पतलून अउ करियच् रंग के जूता-मोजा म कोनो हीरो ले कम नइ लगत रिहिस। चंपा ह सोचथे, शहरी बाबू मन सब सुंदरेच् रहिथें फेर ये बाबू ह तो सबो ले सुंदर हे।
गोठियाथे घला कतेक सुंदर अकन नवा बाबू ह? अउ बाबू मन तो चटर-चटर हिंदी बोलहीं, अंगरेजी झाड़हीं, साहबी झाड़हीं, रहीसी बताहीं; ये ह अइसन नइ करय। लंदी-फंदी घला नइ कहय, अपन बारे म साफ-साफ बता दिस; बिहाव-बर हो गे हे, बाई ह अभी नइ आ सके; जंगल-पहाड़ के मामला, लगती बरसात के दिन, आय के साधन, न जाय के साधन, ऊपर ले कोरी अकन ले नदिया-नरवा; चार-छै महीना पाछू , जब गाड़ी-मोटर चले लागही, तब देखे जाही।
शहर म खूब मोटर-गाड़ी चलत होही? कइसन होवत होही शहर ह?
चंपा ह आज ले शहर ल नइ देखे हे। का काम वोला शहर ले? अपन जंगल बने रहय। का के कमती हे इहाँ? का करे बर कोई शहर जाहीं? शहर वाले मन ल कमती होय रहिथे, तभे तो जंगल डहर आथें अउ टरक भर-भर के इहाँ ले लेगथें।
शहर के बारे म चंपा ह बहुत सुने हे कि उहाँ चाकर-चाकर चिक्कन-चिक्कन सड़क होथे, मोटर-गाड़ी के रेला लगे रहिथे, चांटी रेंगे कस आदमी रेंगत रहिथें, बड़े-बड़े, सुंदर-सुंदर घर होथें, सुंदर-सुंदर आदमी होथें, दुकान मन म किसिम-किसिम के समान बेचात रहिथे। मोटर म जाबे तब ले एक जुवार जाय म लागथे अउ एके जुवार आय म लागथे। रेंगत कोनों जा सकहीं भला?
का करना हे वोला शहर ले, अपन जंगल बने रहय।
सुकवारो काकी ह देखथे, चंपा ह तो मुहाटिच् म खड़े हे; सोंचिस, लजात होही बिचारी ह, अइसन काम कभू करे नइ हे, किहिस – अइ! मुहाटिच् म खड़े रहिबे बेटी कि भीतर जा के कमाबे घला, दिन चढ़त जात हे। डरबे, लजाबे-सरमाबे त काम कइसे होही? बीड़ा उठाय हस, करे ल तो पड़हिच्।ष्
चंपा ल चेत आइस, मन ल कड़ा करिस; सोंचिस, काकर हिम्मत हे कि चंपा ऊपर नीयत डाल सके।
सही बात हे, कोन वोकर ऊपर नीयत नइ डालत होहीं, गाँव के आदमी होय कि साहब मुँशी मन। फेर चंपा ह तो चंपच् ए। अपन मरजाद के रक्षा करे बर वोला खूब आथे। चंपा के आँचल ल अब तक कोई मैला नइ कर सकिन। अपन खुद के नीयत साफ होना चाही, हिम्मत चाही, बस; कोन का कर सकथे? अउ फेर नवा बाबू ह तो देखे म वइसन नइ दिखे, नीयतखोर मन के आँखी अलगे होथे।
जी ल कड़ा कर के चंपा ह भीतर आइस अउ अपन काम म लग गे।
नवा बाबू ह रजाई म खुसरेच् हे। सुने हे, चंपा ह अघात सुंदर हे; गाँव म सबले जादा। मन के लालच ल सँउहार नइ सकिस; रजाई ले मुँहू निकाल के चोरी-लुका चंपा ल देखिस। देखिस ते देखते रहि गे। अहा…….ह…! जंगल के कोई परी ह तो संउहत नइ आ गे होही? बिहिनिया के नरम-नरम घाम ह खपरा छानी ले छना-छना के चंपा के बदन ऊपर झरत रहय; सोंचिस, कहीं उशा देविच् ह तो नारी रूप धर के नइ आ गे होही? बिहने-बिहने कहूँ सपना तो नइ देखत हँव?
अपन जिनगी म नवा बाबू ह लाखों लड़की देखे हे, लाखों औरत देखे हे; गाँव के, शहर के, सनीमा-टी. वी. म बड़े-बड़े हिरोइन देखे हे, देस-बिदेस के, फेर अइसन रूप वो ह आज तक नइ देखे हे। नहीं-नहीं! ये दुनिया के तो नइ हो सके ये ह। जरूर सरग के परी होही, जंगल के परी होही, उशा देवी के अवतार होही ये चंपा ह।
सिरतोनेच् ताय, नइ लगे चंपा ह ये लोक के नारी; को जानी भगवान ह वोला का जिनीस ले गढ़े होही? वो जिनीस ले तो बिलकुल नहीं जेकर ले वो ह अउ कोन्हों ल गढ़त होही। गोर-गोर बदन ल मानो महुवा के चाँदी जइसे सफेद-सफेद फूल ल मोती के संग पीस-कूट के लोई बना के बनाय होही; तभे तो वोकर बदन ले अघात मीठ-मीठ सुगंध अउ मादकता झरत रहिथें। धनबहार के पींयर-पींयर फूल ल गुलाब के फूल संग पीस-पीस के वोकर बदन म लेप करे होही; तभे तो वो ह पुन्नी के चंदा कस चमचम-चमचम चमकत रहिथे। चिरौंजी के बीजा कस दांत हे, लाल खोखमा फूल के पंखुरी कस ओंठ हे। कनिहा के आवत ले बेनी झूलत हे, भुरवा-भुरवा चुंदी ह जब खुलथे तब अइसे लगथे कि अगास गंगा के धार ह लहर-लहर करत धरती म उतर आय हो। सतरा-अठारा साल के जवानी के का पूछना हे? चोली म समात नइ हे, उछल-उछल जावत हे; देख के काकर नीयत ह नइ डोल जाही? दिन भर घाम-प्यास, सर्दी-गर्मी, पानी बरसात म रांय-रांय रोजी-मजूरी करथे चंपा ह, फेर बदन ह बिहने-बिहने फूले खोखमा के फूल कस, ताजा के ताजा।
तीन-चार दिन हो गे काम म आवत चंपा ल। वोकर मन के डर अउ झिझक ह अब खतम हो गे हे; नवा बाबू ह दूसर बाबू मन कस नइ हे। आदमी के नीयत ह वोकर आँखी ले जना जाथे।
आज वो गुस्साय हे; काबर नइ गुस्साही? अतेक दिन हो गे, सुते के खोली म पोतनी नइ परे हे। पलंग के आजू-बाजू कागज अउ कचरा के कूढ़ी गंजा गे हे। सुते रही त कोन वोकर खोली म जाही? जाते सात सुरू हो गे – ‘‘अइ….. यहा का सुतइ ये दइ, दस बजत हे, बाबू के बिहिनिया नइ होय हे का? देखही तउन मन ह का कहिही, चंपा ल लीपे-बहरे बर नइ आय? टार दाई, अइसन म कोन कमाही, तियार लिही काली ले दूसर ल।’’
बाबू ह सुते-सुते सुनत हे चंपा के खिसियाई ल; खिसियावत हे कि चेतावनी देवत हे चंपा ह? कुछू होय, झरना के धार कस झर-झर, झर-झर झरत हे चंपा के बोली ह, कोयली के बोली कस गुरतुर,-गुरतुर लागत हे चंपा के बोली ह; थोकुन अउ भड़कन दे न।
चद्दर ल घुम-घुम ले ओढ़ के अउ सुत गे बाबू ह।
जावत-जावत चंपा ह चेतावत हे – ‘‘काली कहूँ नइ उठही, त देख लेही, बाल्टी भर पानी ल नइ रुकोही चंपा ह वोकर मुड़ी म, ते किरिया हे; तब कोनों बद्दी झन दिहीं, हाँ।’’
सुकवारो काकी ह चंपा के बात ल सुन-सुन के खुलखुल-खुलखुल हाँसत हे। सोंचत हे, टुरी ह कब ले सियानिन हो गे हे।
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आज चंपा के आय के पहिलिच् उठ गे हे बाबू ह। माटी तेल के स्टोव ह भरभर-भरभर जलत हे, स्टोव के ऊपर केतली म चहा ह खदबद-खदबद खउलत हे। अभी बेर नइ उवे हे। बाबू ह उत्तीे डहर के अगास ल निहारत हे, उत्तीु डहर लाइन से बड़े-बड़े पहाड़ हे। पहाड़ मन म घम-घम ले जंगल हे। जंगल म महुवा हे, चार हे, तेदू हे, कर्रा हे, हर्रा हे, बहेरा हे, आँवला हे, साजा हे, सागोन हे, बीजा हे, बाँस हे, अउ हे नाना प्रकार पसु-पक्षी। सूपा जइसे चाकर-चाकर पान वाले सागोन के पेड़ मन तो चरचर ले सफेद-सफेद चाँदी कस फूल ले लदका गे हें। इही पहाड़ी मन के पाछू डहर ले तो निकलत होही सुरुज देवता ह। वाह! सूर्योदय के कतका सुंदर नजारा देखे बर मिलही आज?
सब चंपा के कृपा हे।
जब अगास म करिया-करिया बादर उमड़थे तब एको ठन पहाड़ ह नइ दिखय, बादर म बादर, एकमेव हो जाथे। पानी बरस के जब थमथे तब पहाड़ म मानो आगी लग जाथे, अतेक करिया-करिया धुँगिया निकलथे कि जम्मों पहाड़ ह ढंका जाथे, पहाड़ ह घला बादर बन जाथे। तब सब जान जाथे, अउ बहुत जोर के पानी गिरने वाला हे।
काली बहुत पानी गिरे रिहिस, आज अगास म न तो बादर हे, न पहाड़ म आगी लगे हे।
पहाड़ी के पीछू अगास म धीरे-धीरे लाल रंग बगरत हे। अहा..ह..ह, कतका सुंदर तसवीर बने हे। बाबू ल आज मालूम होइस कि प्रकृति ले बड़का अउ कोनों चित्रकार दुनिया म नइ होवय। सुंदर अकन ठंडा-ठंडा बयार चलत हे, हवा म न धुर्रा के बादल हे, न पेट्रोल-डीजल के बदबू हे, न गंदा नाली के भभोका हे, जंगल के फूल मन के सुंदर अकन खुस बू अउ मदरस के महक हे, माटी के मनमोहक गंध हे बिहने के हवा म।
कते फिल्टर म छन के आवत होही अतका सुंदर हवा?
बाबू ल चहा बनात दुरिहच् ले देख डारिस चंपा ह; ठक ले हो गे, हे भगवान! काली काबर वइसने कहि परे होहूँ? अतका मुँधेरहा उठे म तकलीफ नइ होइस होही बाबू ल?
कुछू नइ बोल सकिस चंपा ह, सुटुर-पुटुर अपन काम म लग गे।
बाबू ल ठट्ठा करे सूझिस। कहिथे – ‘‘आज तोर बहुत अकन काम के बचत हो गे चंपा।’’
बाबू के गोठ ल सुन के चंपा के कलेजा ह धक ले हो गे, बक्का नइ फूटिस, मुष्किल से डरावत-लजावत बोलिस – ‘‘का?’’
‘‘अरे, बाल्टी भर पानी लाय रहितेस, मुड़ी म रुकोय रहितेस, चिखला माते रहितिस तउन ल सुखोय रहितेस, कम हे?’’
बाबू के गोठ ल सुन के चंपा के तन-बदन झनझना गे, शरम के मारे मुँहू ह लाल-बादर हो गे, दुनों हथेली म चेहरा ल ढाँक लिस, जीभ ह दाँत के बीच फँस गे, का जवाब देय चंपा ह? कतेक सुंदर अकन गोठियाथे नवा बाबू ह? फेर हे भगवान! ये ह तो एक-एक ठन बात ल सुनत रहिथे, सुरता म रखे रहिथे। ….. चेत जा…., चेत जा चंपा, खबरदार! अब ले बिना सोंचे-बिचारे कुछू केहे ते।
दू ठन मग म चहा ल छान के बाबू ह एक ठो ल चंपा कोती बढ़ा दिस – ‘‘चंपा, तोर चाय।’’
फेर अकचका गे चंपा; चहा कोती चंपा के हाथ नइ लामत हे।
‘‘अरे ले…..।’’
बड़ मुष्किल म मुँहू खुलिस चंपा के – ‘‘हम चहा नइ पीयन बाबू।’’
‘‘काबर?’’
‘‘……………।’’
‘‘काबर नइ पीयस चहा?’’
‘‘माँ कहिथे, चहा पिये म बदन ह करिया जाथे।’’
सुन के बाबू ल हँसी आ गे, कहिथे – ‘‘तभे जंगल के टुरी मन अतका उज्जर, अतका सुंदर होथे।’’
इसारा समझ गे चंपा ह; अतका अड़ही हे का वो ह? ये जंगल म अउ कोन हे वोकर छोड़ अतका सुंदर, अतका उज्जर भला? शरम के मारे बदन झुरझुरा गे, छाती ह लोहार के धुकनी कस जोर-जोर से चले लगिस। बदन के जम्मो लहू ह चेहरा म सकला गे; चेहरा ह लाल पाके बंगाला कस ललिया गे; दुनो हथेली म चेहरा ल ढाँक लिस, मन म संशय जनम लेवत हे; बड़ा धोखेबाज होथें शहरी बाबू मन, अइसने म तो मोहनी-थापनी डार के पिलाथें, अपन बस म करथें, इज्जत से खेलथें अउ पंछी कस उड़ जाथें। तरह-तरह के बिचार फूटत हे चंपा के मन म; कहूँ बाबू के नीयत म खोंट तो नइ अमा गे हे, मरद जात के का भरोसा? कनखहूँ बाबू के आँखी म झाँकत हे चंपा ह। बाबू के आँखी ल पढ़त हे चंपा ह। मन के दोश ह आँखी म जरूर प्रगट हो जाथे। मने मन तउलत हे बाबू के नीयत ल चंपा ह।
शिवनाथ के जल कस बिलकुल निर्मल, निर्दोश अउ थिर हे बाबू के आँखी ह। चंपा झेप गे; छी! भरम के का इलाज? कतका नेक हे नवा बाबू ह।

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तिनेक महीना हो गे हे, अब तो अतेक घसलहा हो गे हे चंपा ह कि बाबू ल रगड़त आही अउ रगड़त जाही। बाबू ल तिखार-तिखार के वोकर घर-परिवार के एक-एक ठन बात ल पूछ डरे हे। अपनो एक-एक ठन बात ल बता डरे हे बाबू ल; मन साफ हे त का के परदा?
आज काम म नइ जाना हे, फुरसत म हे चंपा ह। इतराय के अच्छा मौका मिले हे; पूछत हे – ‘‘कब लाबे बाबू दीदी ल?’’
‘‘कोन दीदी ल? काकर दीदी ल?’’
‘‘ओ….हो… कोनों अइसने तिखारथे तब मोर एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ जा़थे।’’ चंपा ल गुस्सा आ गे। ‘‘का …. बताँव भगवान? …..हमर दीदी, तोर बाई ल।’’
‘‘अरे! मोर बाई ह कब ले तोर दीदी हो गे?’’
‘‘हो गे न, चुप कर; तंय झन मान, हम तो मान लेन?’’
‘‘फोकट म जब अतका सुंदर सारी मिलत होही तब माने म भला कोन ल एतराज होही?’’ बाबू ह नहला म दहला मारिस।
‘‘सपना झन देख; कोन्हों रस्ता म परे-डरे नइ हे सारी ह कि फोकट म मिल जाही?’’
‘‘तब कीमत बता डर न?’’
‘‘रस्ता नाप, कतको देखेन तोर सही खरीददार। असली खरीदार ह कीमत नइ पूछे।’’
बाबू ल कुछू बोलत नइ बनिस। का हे चंपा ल खरीदे बर वोकर पास?
चंपा के मुँहू ह कहाँ थिराने वाला हे, कहत हे – ‘‘सुरता आतिस तब न लातेस?’’
‘‘तोर सही सारी के रहत ले घरवाली के भला कइसे सुरता आही?’’ छेड़े बर बाबू ल फेर मौका मिल गे।
अब तो झेंप गे चंपा ह, शरम के मारे मुँहू-कान ललिया गे। कुछू कहत नइ बनिस त जीभ ल बीता भर निकाल के जिबरा दिस – ‘‘ए…………।’’
बाबू ह अपन कागज-पत्तरर के लिखा-पढ़ी म भिड़े रहय, चंपा के गुलाब जामुन कस जीभ ल देख के ठगाय कस हो गे। मुँहू म पानी आ गे।
अतका म मन नइ भरे हे चंपा के। चुप कहाँ बैठने वाली हे; फेर पूछत हे – ‘‘गजब सुंदर होही न दीदी ह?’’
‘‘सारी ले बढ़ के कोनों घर वाली ह सुंदर होथे का? होथे का तिहीं बता? नइ सुने हस का वो गाना ल? मोर सारी परम पियारी रे…………..।’’
‘‘गारी खाय बर भाय हे? आज बहुँत बढ़-चढ़ के बोलत हस।’’
‘‘चाहे कनवी रहय कि खोरवी रहय, विहिच ह काम आही; तंय थोरे काम आबे?’’
चंपा ह बीता भर जीभ ल निकाल के फेर जिबरा दिस।
सुकवारो काकी ह चंपा के गोठ ल तइहा ले सुनत हे। मने मन कंझावत हे; ये टुरी ह आज कहीं जकही तो नइ हो गे हे? आगी म खुदे झपाय परत हे, लेसाही-भुंजाही कि नहीं? रहि नइ गिस त झंझेटिस – ‘‘अइ चंपा, यहा का ए बेटी? पढ़न-लिखन दे बाबू ल।’’
चंपा ल चेत आइस। काम निबटा के सुरूकुरू घर कोती भागिस।

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घर म रस्ता देखत-देखत दाई के आँखी ह थक गे हे। आज गजब बेर लगाइस चंपा बेटी ह। मन म तरह-तरह के बिचार आवत हे। दाई ह जानत हे, चंपा ल जुठारे बर काकर नीयत नइ लगे होही? बाढ़े बेटी, डिड़वा के घर चौका बरतन करे बर जाथे। कभू वहू ह वइसने जावत रिहिस हे। हे भगवान! कहूँ बेटी ह घला दाई के रस्ता म तो नइ चल देय होही? चंपा अउ नवा बाबू ल ले के कइसन-कइसन बात नइ होवत हे गाँव म? सुकवारो दीदी ह घला आ-आ के बरजत रहिथे।
आते सात पूछथे चंपा ल – ‘‘आज अघात बेरा लगाय बेटी?’’
चंपा के गोड़ ह मुहाटिच् म ठोठक गे। चंपा ह जानत हे, एक न एक दिन तो ये बात ह होनच् रिहिस। दाई के आँखी म झाँक के देखथे, हे भगवान! इहाँ तो ष्ंाका-कुषंका के अथाह दहरा बन गे हे। काबर नइ बनही? दूध के जले ह मही ल फूँक-फूँक के पीबेच करही।
बड़ मया दुलार ले दाई के आँसू ल पोंछ के कहिथे चंपा ह – ‘‘अपन बेटी ऊपर बिसवास कर दाई, नइ टोरंव तोर भरोसा ल कभू। बोहाय बर होतिस त चंपा ह क……ब के बोहा गे रहितिस।’’
‘‘डर्राथों बेटी, एक तो मंय अभागिन, पापिन, कोन जाने कते घड़ी म पाप कर परेंव, सजा ल आज ले भोगत हँव। छिन भर के पाप म जिनगी ह कइसे नरक बन जाथे, देखत हस न अपन दाई ल? गरीब के सब मजाक उड़ाथें बेटी। गरीब के गरीबी अउ मजबूरी के स….ब फायदा उठाथें। स…ब सुवारथ के संगी होथें। ये दुनिया म गरीबी ह खुदे अपन आप म सबले बड़े पाप आय बेटी।’’
‘‘कोनों पाप नइ करे हस दाई तंय ह। दुनिया ह कहिथे ते कहन दे न? हड़िया के मुँहू म परई ल ढाँकबे, आदमी के मुँहू म काला ढाँकबे? तोर बेटी ह जानत हे, तंय कोनो पाप नइ करे हस। तंय तो घुमियारिन दाई कस, सीता माई कस पवित्र हस। पाप तो वो आदमी ह करे हे, जउन ह तोर नादानी, तोर जवानी के फायदा उठाइस, तोला धोखा दिस, तोर विश्वाँस ल टोरिस। सात जनम ले तड़पही वोकर आत्मा ह, हाँ।’’
क्रोध, क्षोभ अउ अपमान के कारण चंपा के मुँह ह तमतमा गे, क्रोध वो आदमी के प्रति जउन ह वोकर बाप होतिस, पर जेकर मुँहू ल वो ह आज तक कभू देखेच् नइ हे।
दाई ह चंपा ल पोटार लिस। मुँह म हाथ धर के कहिथे – ‘‘झन सराप बेटी, वोला झन सराप। का मिलही येखर से? अपने जी ह करू होथे।’’
चंपा के तमतमाय चेहरा म दाई ल वो आदमी के चेहरा ह साफ-साफ दिखे दिखे लगिस।

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ये गाँव ह तइहा ले अइसनेच हे। बारो महीना कोरी भर सरकारी कर्मचारी इहाँ पड़ेच् रहिथें। जंगल विभाग के कहस कि पटवारी कहस, कि ग्राम सेवक कहस कि नरस बाई कहस, कि गुरूजी कहस। ए डहर के कोनों नइ रहंय, सब चाँतर कोती ले आथें, परदेस ले आथें, लोग-लइका ल घर म छोड़ के, इहाँ के नादान भोली-भाली, अपढ़ गरीब जवान बेटी मन ल, दाई-माई मन ल, अपन हवस के जाल म फँसाथें, अउ भाग जाथें।
चंपा के दाई ह घला अइसने धोखा खा के बइठे हे। चंपा ह वोकरे निसा नी आवय। फेर चंपा के दाई ह दूसर मन सरीख नइ हे। दाई-भाई मन अलगा दिन, कोन रखही पापिन ल संग म? तभो ले रोजी-मजूरी कर-कर के, बेटी के मुँहू ल देख-देख के अउ वो परदेसी के सुरता कर-कर के आज ले वोकर नाम म बइठे हे, जिनगी ल खुवार करत हे। अभी कतकेच् उमर होय होही चंपा के दाई के; चालीस ले जादा तो कोनो हालत म नइ होही, फेर देखे म लगथे पचास-पचपन के।
वइसने कहूँ चंपा संग मत हो जाय। वइसने तो हे, विही परदेसी सरीख तो हे ये नवा बाबू ह; चंपा घला तो हे वइसने, वोकरे सरीख, दाई सरीख। दाई के कहानी ल बेटी ह झन दोहरावे, इही चिंता म रात-दिन परे रहिथे दाई ह। मन के बँहके म कतका समय लगथे?
शहर ले सौ-सवा सौ किलो मीटर दूरिहा घनघोर जंगल के बीच म बसे हे ये गाँव ह। गाँव ह एक ठन हे फेर टोला हे कोरी अकन; पटेल टोला, बइगा टोला, पद्दी टोला, माँझी टोला, कंगला टोला, बंगला टोला ……। ये कहानी ह बंगला टोला के आय। जंगल विभाग के करमचारी मन बर गजब अकन बंगला बने हे इहाँ; इही टोला म स्कूल हे, इही टोला म पंचायत घर हे, तउन कारन से ये ह बंगला टोला आय।
गाँव म हमेशा कोई न कोई टुरी के कहानी चर्चा म रहिथे। बारा-तेरा साल के कोनों होइस नहीं, कि जहाँ जवानी के पीका फुटे के सुरू होइस नहीं तहाँ फेर सुरू हो जाथे वोकर चर्चा।
‘‘अबे! छोड़ न यार, अब माधुरी के गोठ ल, केटरीना के बात कर,, केटरीना के।’’
‘‘अरे यार जनउला तो झन पूछ, कते केटरीना, कोन केटरीना, बने खोल के तो बता।’’
‘‘अबे घोंचू ! गाँव म रहिथस कि लंदन म बे? दुनिया ह जान डरिस, गली-गली म षोर हे, फलानी टुरी के जोर हे। तोला पता नइ हे?।’’
‘‘अरे बाप रे! वो काली के रेमटही टुरी? जउन ल बने ढंग ले चड्डी पहिने ल नइ आय तउन ह?’’
‘‘अबे अब जा के देख, कइसे चोली पहिर के मटमटात घूमत रहिथे गली-गली, हाट-बजार म।’’
‘‘सारे कलजुग ह सिरतोने खरा गे हे रे।’’

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अब तीन महीना हो गे हे, गाँव म बस एकेच् चर्चा होवत हे; चंपा के चर्चा। लइका कहस कि सियान, डोकरा कहस कि जवान, टुरी कहस कि मोटियारी; कुआँ म, घाट म, घटौंधा म, नरवा म, खड़का (सोता) म बस एकेच् गोठ – ‘‘दाई ले घला नहक गे रे टुरी ह।’’
‘‘अपन नहीं त दाई के बारे म तो सोंचतिस।’’
‘‘का सोंचना यार, जघा-जघा मुँहू मारत जइसे दाई के दिन बीतत हे, बेटी के दिन ह घला वइसने बीत जाही।’’
‘‘अइसन एर्री-बेर्री के दिन ह अइसने तो नहकही भाई, जात के पता न गोत-गोतियार के, कोन आदमी ह वोकर संग बिहाव करही? अइसने एकाघ झन ल फाँसही तभे तो बनउती ह बनही।’’
‘‘फाँसही कि खुद फँसही, भगवान जाने?’’
‘‘तब ले तो टुरी ल न लाज हे न शरम हे। गली-गली म कइसे तितली कस उड़त-फिरत रहिथे, मटमटात? ही..ही.. ही.ही…….करत रहिथे?’’
‘‘पेट ल निकलन दे, तहाँ सब घुँसड़ जाही।’’
‘‘जरूरी हे का बे पेट निकलना?’’
‘‘बने कहिथस यार। ….. अरे हमन, हमर गाँव के जम्मो टुरा मन मर गे हन का बे, कि साले परदेसिया आदमी ह वोला भा गे हे।’’
‘‘अरे! दिलदार हे यार हीरो ह। देखस नहीं, कइसे चमका के रखथे हिरोइन ल।’’
जे ठन मुँहू ते ठन गोठ।
चंपा घला जानत हे कि वोकर बारे म का का अफवाह उड़त हे गाँव म। जानहीं कइसे नहीं, मुँहू ऊपर ताना मारने वाला मन के इहाँ कोई कमी हे का? सोझ झड़कथें – ‘‘अरे यार, अब तो इहाँ के टुरी मन ल जंगलिहा केरा ह नइ मिठाय, पारसली म मोहाय हें ।’’
चंपा घला कहाँ सुन के चुप रहने वाली, सोझ हाँकथे वहू ह – ‘‘तुँहरे दाई-बहिनी मन खावत होहीं पारसली केरा ल, तुँहरो बर बचा के लावत होहीं, तभे पारसली केरा के तुँहला सुरता आवत हे।’’
तभो ले चंपा ल कोनों फरक नइ पड़े। अफवाह ल धरही तउन ह तो मरिच् जाही। कुकुर भूँके हजार, हाथी चले बजार। कुकुर मन तो भूँकबेच् करहीं। सच ल का के आँच?
दाई ल फरक पड़थे। बिना आगी के धुँगिया तो नइ होवय न? रात-दिन संसो म दुबरात हे। बेटी के नहवई-खोरई के एक-एक दिन के गिनती करत रहिथे।
नवा बाबू ल घला फरक परथे। बइठे ठाले बदनामी, कोन ल सहन होही? आज काम म वोकर मन नइ लगत हे। कागज-पŸार ल खोल के बइठे हे फेर लिखे-पढ़े के मन नइ होवत हे। कालिच् सांझ कुन के बात आय, वर्मा बाबू ह कहत रहय – ‘‘वाह! का हाथ मारे हस यार, इही ल कहिथे, मारो तो हाथी, लूटो तो भंडार। कोन वोकर पीछू नइ परे होही? ककरो तो हाथ आतिस। किस्मत वाले हस तंय; मौज कर ले बाबू, फेर नरी म फंदा मत डारबे। घर परिवार वाले आवस, खयाल रखबे।’
वर्मच् के बात नइ हे, सबो संगवारी मन वोला अइसनेच कहिथंे। सुन-सुन के बिट्टा गे हे नवा बाबू ह; काकर-काकर मुँहू ल बंद करे, कइसे समझाय संगवारी मन ल?
चंपा के चेहरा ह वोकर आँखी म झूल गे। वोकर हँसई, वोकर बेलबेलाई, ठठ्ठा करई, सब बात के वोला सुरता आवत हे। कहूँ चंपा ह वोकर से प्यार तो नइ करे लग गे होही? जरूर चंपा ह वोला मने मन चाहत होही, नइ ते का जरूरत हे वोला सारी के रिस्ता जोड़े के? का जरूरत हे वोकर कपड़ा-लŸाा के अतका ध्यान रखे के? कइसे घसीटत रेंगथे। नास्ता, चहा-पानी, खाय-पिये के, सब बात के अतका काबर ध्यान रखत होही? काबर सुनात होही शिवनाथ -सतवंतिन के कहानी ल?
तब का मही अतका बु़द्धू हंव? आगू थारी म कलेवा ह परसाय माड़े हे, मोला भूख नइ हे? नइ खाना बेवकूफी नो हे का? बाबू के मन म वासना के राक्षस समावत जात हे।
आवन दे काली चंपा ल, आर या पार। बाबू के मन म वासना के राक्षस ह अउ पक्का घर बना लिस।

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रात भर नींद नइ आइस बाबू ल। रहि-रहि के चंपा के मोहनी सूरत वोकर आगू म आ आ के मोहनी नाच नाचे हे। बइगा टोला के चेलिक अउ मोटियारी मन बिधुन हो के रीलो नाचत हें, गावत हे, –
‘‘रे…… रिलो रे…..
रिलो रे…..रिलो रे……
रे…… रिलो रे…..’’
गीत सुन-सुन के बाबू के मन अउ व्याकुल होवत हे। देख तो ,मोटियारी मन के बीच म कतका लहरा-लहरा के नाचत हे चंपा ह? बीच म अंगीठी जलत हे। महुवा के बड़े-बड़े गोला मन कइसे सोन कस लकलक-लकलक दहकत हे अंगीठी म? अउ अंगीठी के सोन कस अंजोर म कइसे दहकत हे चंपा के बदन ह, सोना कस? मानों सोना के मूर्ती होय।
अउ चंपा के कनिहा ल पोटार-पोटार के बिधुन हो के नाचत हे तउन ह कोन ए? अरे! ये तो बाबू हरे।

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बिहने चंपा ह आइस। कुछू फरक नइ पड़े हे चंपा ल, कोई खोट नइ हे चंपा के मन म; चकरघन्नी कस घूम-घूम के वइसने काम करना, वइसने इतराना, वइसने मजाक करना; कुछू फरक नइ हे चंपा के मन म, स्वभाव म।
बाबू ल बहुत फरक पड़े हे। बाबू के मन म वासना के राक्षस ह घर बना डरे हे। चंपा के निर्मल व्यवहार ल देख के बाबू के मन के वासना के राक्षस घला हिम्मत हारत हे। पवित्रता के आगू पाप भला टिक सकही? बाबू के हिम्मत नइ होवत हे कि चंपा के आँखी से आँखी मिला के देख सके।
चंपा ह जान गे, बाबू के तबीयत आज अच्छा नइ हे; कहिथे – ‘‘तबीयत तो ठीक हे न बाबू?’’
बाबू के तबीयत तो ठीक हे, मन ठीक नइ हे। कहिथे – ‘‘तंय ककरो संग प्यार करे हस चंपा?’’
बाबू के बात ल सुन के चंपा ठक ले हो गे। बाबू ल आज हो का गे हे?
‘‘तंय ककरो संग प्यार करे हस चंपा?’’
‘‘आलतू-फालतू के काम बर चंपा के पास टाइम नइ हे बाबू।’’
‘‘प्यार…. आलतू-फालतू?’’
‘‘जेकर से न तो पेट भरे, न तन ढंके, न जिनगी चले, वो का काम के बाबू? जिनगी म का काम आथे प्यार ह?’’
‘‘सच बता चंपा तंय का मोर से प्यार नइ करस?’’ अब मतलब के बात म आइस बाबू ह।
चंपा ह कहिथे – ‘‘तोर से तोर बाई ह प्यार करत होही, हम काबर करबो तोर से प्यार?’’
‘‘नहीं, नहीं, तंय जरूर मोर से प्यार करथस; मुँह से भले झन बोल।’’
खिलखिला के हाँस दिस चंपा ह, अंगठा के टीप ल छिनी अंगठी के गांठ मन म सरका-सरका के कहिथे – ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं; अतका…अतका…अतका एको कनिक नहीं।’’
चंपा के ये अदा म बाबू के करेजा के चानी-चानी हो के बगर गे।
मौका आज अच्छा हे। सुकवारो काकी के घला आरो नइ मिलत हे, गली घला सुन्ना हे। अइसन मौका अउ नइ मिलही।
चंपा के काम ह उरक गे हे; घर जाय बर निकलत हे। फेर मुहाटी म तो रस्ता छेंक के बाबू ह खड़े हे।
हे भगवान! बाबू ल आज का हो गे हे? चंपा के निगाह बाबू के आँखी म गड़े हे। बाबू के हिम्मत नइ होवत हे चंपा संग आँखी मिलाय के। बाबू के आँखी म वासना के राक्षस मेंड़री मारे जो बइठे हे।
‘‘जावन दे बाबू , रस्ता छोड़ दे।’’
‘‘तंय भले नइ करत होबे चंपा, मंय तो करथों न तोर से प्यार? मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?’’
‘‘मन से का पूछना बाबू ,मन तो चंचल होथे; भंवरा सरीख, आज ये फूल म तो कल वो फूल म। प्यार के मरम ल मन ह का जाने? …..फेर ये चंपा म का हे जउन ल तोर मन ह प्यार करत होही? यदि चंपा के शरीर ल प्यार करत होही बाबू तोर मन ह त शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे, घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल का मिलही मल-मूत्र के सिवा?…….. प्यार करना सरल होथे, निभाना बड़ा कठिन होथे बाबू। का तंय चंपा के मांग म सिंदूर भर सकबे? मोर से बिहाव कर सकबे? ……..तंय कर भी लेबे बाबू, मंय तो नइ कर सकंव न? तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे? ……रहि गे आत्मा के बात? आत्मा तो गंगा कस पवित्र होथे। गंगा के लहरा म वासना के पाप तो नइ रहय न? तोर आँखी म तो आज वासना के समंदर हाहाकार करत हे। मंय तो तोला देवता समझत रेहेंव, आज मोर विश्वाीस ल तंय टोर देस बाबू। हट जा सामने से। बाबू! तोर पांव पड़त हंव; अभागिन के परछो झन ले।’’
बाबू ह आज राक्षस बन के रास्ता छेंक के खड़े हे चंपा के। आज वोला कुछू नइ दिखत हे, कुछू नइ सुनात हे, कुछू नइ सूझत हे; दिखत हे केवल अप्सरा कस मोहनी नृत्य करत चंपा के लचकत शरीर ह, सुनावत हे केवल झरना कस झरझर-झरझर झरत चंपा के मदरस कस मधुर बोली ह, सूझत हे केवल वासना; वासना, केवल वासना।
राक्षस के हाथ बढ़ गे चंपा के शरीर ल अपन आगोश म लेय बर।
चंपा घला अब वो चंपा नइ रहि गे हे; अबला, असहाय, लाचार। चंपा के शरीर म रणचंडी अवतरित हो चुके हे। केश खुल के हवा म बिखर गे हे, बड़े-बड़े आँखी ह राक्षस के रकत चुहके बर तैयार हो गे हे, शेरनी कस गुर्रावत हे चंपा ह – ‘‘खबरदार! खबरदार बाबू , कहू चंपा के शरीर ल हाथ लगायेस ते। चंपा ह भले जान ले लेही कि जान दे देही, इज्जत नइ दे सके। हट जा सामने से।
राक्षस के का मजाल कि रणचंडी के सामना कर सके।
सत के बधवा म सवार रणचंडी ह निकल गे बड़ोरा कस।

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बाबू के मन म समाय वासना के राक्षस ह रणचंडी के तेज म जल के भस्म हो चुके हे। पछतावा के आग म अब जलत हे बाबू के शरीर ह। ककरो से आँखी मिलाय के अब हिम्मत नइ हे बाबू के शरीर म, भला चंपा से का वो आँखी मिला सकही? भूख लगत हे न प्यास, बाबू ल। दिन भर घर म खुसरे हे, पलंग म सुते हे, सुते-सुते सोंचत हे; हे भगवान मोर से आज ये का पाप हो गे।
चंपा के कहे एक-एक ठन बात ह वोकर कान म गूँजत हे – ‘शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे बाबू , घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल आखिर का मिलही मल-मूत्र के सिवा? ………. तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे बाबू? रहि गे आत्मा के बात? आत्मा तो गंगा कस पवित्र होथे। गंगा के लहरा म वासना के पाप तो नइ रहय न?’
चंपा के कहे एक-एक ठन बात ह कान म गूँजत हे बाबू के। रहि-रहि के हथौड़ा चलात हे बाबू के दिमाग म चंपा के एक-एक ठन बात मन ह। बाबू ह गुनत हे; ज्ञान के अतेक बात ल कहाँ ले सिखे होही चंपा ह? पुरूष के दंभ ल तोड़ के रख दिस; अतका ताकत कहाँ ले आइस होही चंपा के शरीर म? कहाँ ले पाय होही चंपा ह तन अउ मन के अतका अथाह शक्ति ? शिवनाथ अउ सतवंतिन ले?
शिवनाथ अउ सतवंतिन के कहानी ल रहि-रहि के सुरता करत हे बाबू ह। चंपच् ह तो बतावत रिहिथे ये कहानी ल; बताथे त सनीमा देखे कस एक-एक ठन बात ह, एक-एक ठन दृष्य ह बाबू के आँखी के आगू म चले लगथे। आजो विही सीन मन ह खँाखी-आँखी म झूले लगिस।
गजब बातूनी तो हे चंपा ह, कब चुप रहिथे वो ह? कुछू गोठियाय बर नइ मिलिस ते सुरू हो गे कहानी सुनाय बर। बिना एती-वोती के छूट बाबू ल पूछत हे – ‘‘शिवनाथ अउ सतवंतिन के कहानी ल सुने हस बाबू तंय?’’
‘‘कोन शिवनाथ -सतवंतिन?’’
‘‘धत्! फेर काला पढ़े हस? अरे विही शिवनाथ , जेला नहक के तंय ह इहाँ आथस। जेकर अमृत कस पानी म छत्तीासगढ़ के मनखे मन, जीव-जंतु मन अपन पियास बुझाथें। कतरो गाँव अउ शहर जेकर खांड़ म बसे हे।’’
‘‘वो नदिया? मंय तो कोनो आदमी के कहानी समझत रेहेंव।’’
‘‘आदमी के कोनों कहानी बनथे का? कहानी तो देवता मन के बनथे। ये मन कोनों नदिया नरवा नो हें, देवता आवंय, लीला करे बर, छत्तीीसगढ़ ल तारे बर, प्यार का होथे येला समझाय बर आदमी के अवतार लेय रिहिन।’’
‘‘का होथे चंपा प्यार ह? ककरो से कभू करे हस का तंय?’’
‘‘धत्! दुनिया म जतका पवित्र चीज होथें, वोकरे मन के सार ले, वोकरे मन के सत् ले तो प्यार बनथे। आदमी के मन म तो दुनिया भर के मैल भराय रहिथे, आदमी ह का प्यार करही बाबू?’’
‘‘तब का देवतच मन ह प्यार करथे?’’
‘‘जउन मनखे ह सच्चा अउ पवित्र प्यार करथे वो ह देवता ले कम होथे का?’’
‘‘अब प्यार के ही बात बतावत रहिबे कि कहानी घला सुनाबे?’’
‘‘हमर पानाबरस राज म घोर जंगल बीच एक ठन गाँव हे बाबू कोटगुल। तइहा जमाना म उहाँ के पटेल के सात झन बेटा अउ सबले छोटे एक झन बेटी रिहिस। सात झन भाई के एक झन बहिनी, तउन पाय के सब झन वोला सतवंतिन कहंय। सातों भाई अउ सातों भउजी के गजब मयारुक। एक गिलास पानी बर घला वोला कोनों नइ तियारे, अतका फुलक-झेलक, फूल कस बदन, अघात सुंदर , अतराब म अउ कोनों नइ तइसन।’’
‘‘तोरे कस रिहिस होही?’’
‘‘धत्! वो कोनों मानुस थोड़े रिहिस, काली माई के अवतार रिहिस। वोकर अंग-अंग ले, चेहरा ले काली माई के तेज निकलत रहय। चंपा तो कलजुग के नारी आवय। एक नहीं, हजारों हजार चंपा मिल के वोकर बराबरी नइ कर सकंय बाबू।’’
‘‘फेर का होइस चंपा?’’
‘‘जवान हो गे सतवंतिन ह। घोटुल मा जावय सतवंतिन ह, संगी मोटियारी मन संग। रीलो नाचय, अइसे नाचय मानों कोनों अप्सरा नाचत होय। सतवंतिन ह जब नाचय तब मांदर अउ मंजीरा बजाय बर संउहत सरग के देवता मन आवंय। गाँव भर के चेलिक मन वोकर आगू-पीछू मंड़रावँय। काकर हिम्मत होतिस वोला हाथ लगाय के? अइसने नाचत-नाचत एक दिन एक झन चेलिक ह मंद के नशा म ओकर बांह ल धर दिस। जेकर अंग म संउहत काली माई के बास रिहिस; कोनो पाप के बसीभूत होके वोला छूही त का वो ह बाँचही? जल के भसम नइ हो जाही?’’
‘‘तब का वो ह भसम हो गे?’’
‘‘तुरते लुलवा हो गे। फेर तो अउ ककरो हिम्मत नइ होइस सतवंतिन के शरीर ल छुए के।’’
‘‘तब वोकर बिहाव कइसे होइस? काकर संग होइस?’’
‘‘ये धरती म का एके झन ह अवतार लेथे? देवी के संग देवता ह तो घला अवतार लेथे न? दूसर गाँव म वोकर देवता ह तो घला अवतार ले चुके रिहिस। …….. फागुन के महीना रहय। परसा मन सुंदर अकन ले चर-चर ले लाल फूले रहंय। महुवा मन अपने फूल के नशा म जानो-मानों मात गे रहंय। चार, आमा सब बउराय रहंय। तेंदू के पेड़ मन मीठ-मीठ फर ले लहसत रहंय। धनबहार के पींयर-पींयर फूल अइसे दिखत रहंय मानो कोनो ह हरदी ल पीस के, पानी म घोर के, जंगल देवी के अंचरा म छींच दे होय। ……. …गाँव म सुंदर अकन मडई भराय रहय। इही मंडई म आय रहय वोकर देवता ह। भीम सही शरीर , दुरिहच ले सबले अलग, सबले न्यारा दिखत रहय। दूनों झन तो एक दूसर बर बनेच् रिहिन, मन मिले म कतका समय लगथे? सीता माई ह पुश्प वाटिका म जब भगवान ल देखिस त ऊँखर मन मिले बर टेम लगिस का?’’
‘‘तब का उँखर घर वाला मन दूनों झन के बिहाव कर दिन। का नाव रिहिस हे वोकर?’’
‘‘नाथ! अउ जानथस, सतवंतिन के का नाव रिहिस? शिव। भाई मन के जोर म नाथ ल लमसेना बने बर पड़ गे। लमसेना के का कदर? चरवाहा बरोबर ताय। घर भर के सरी काम ल करवांय। नाथ ह तो रिहिस देवता के अवतार, बड़े से बड़े काम के छिन भर म वारा-न्यारा। भाई मन अचरज म बूड़ जावंय। भउजी मन के मन म पाप पले के सुरू हो गे।’’
‘‘आगू का होइस चंपा? बता न।’’
‘‘शिव अउ नाथ दूनों झन एक दूसर ल गजब मया करंय। एक दूजा ल देखे बिना कोनों नइ रहि सकंय। दूनों झन के प्यार ह भउजी मन के आँखीं म काँटा गड़े कस गड़े लगिस। अशाड़-सावन के महीना रिहिस। झड़ी लगे सात दिन हो गे रहय। वो दिन तो मानों बादर ह फट के धरती म आ गे रिहिस। सुपा के धार कस पानी रटरट बरसे लगिस। बिहने ले संझा हो गे, संझा के फेर बिहने हो गे, काबर थिराय पानी ह? नदिया-नरवा बकबका गे, खेत-खार डोली-बहरा सब एकमेव हो गे। जेती देखतेस पंड़रच् पड़रा। सब डहर पानिच् पानी।’’
‘‘तब का प्रलय हो गे?’’
‘‘अभी कहाँ परलय होय हे बाबू? अभी तो छत्तीिसगढ़ के इतिहास लिखाय बर बाँचे हे। प्रेम के अमर कथा ह पूरा होय बर बाचे हे। ……….. भाई मन देखिन, बड़े-बड़े बहरा, जिंखर तरिया-पार कस मेंड़ हे, उँखर मुहीं-पार मन लिबलिब-लिबलिब करत रहंय। माई बहरा के मुंही ह अब फूटे तब फूटे होत रहय। सातों भाई मन मुहीं बाँधे बर दँउड़ गंे। नाथ ल कब घर म छोड़ने वाला रिहिन?
सातों भाई मन चटवार म माटी के लोंदा चटका-चटका के देवत हें। बीच मुहीं म खड़े हो के नाथ ह सबके माटी-लोंदा ल झोंक-झोंक के रचत जावत हे मुंही म। माटी के लोंदा ल मड़ान नइ पावत हे, धार म बोहा जावत हे।’’
‘‘तब का मुंही ह नइ बँधाइस?’’
‘‘नइ बँधातिस विही म भलाई रिहिस हे बाबू। वोती भाई मन के मन म तो पाप पलत रहय, का जाने नाथ ह? भाई मन आँखीं-आँखीं म गोठया डरिन। बहुत दिन हो गे हे धरती माई ल पूजन देय। बिना बलि लेय मुही ह कइसे बँधाही? नाथ जइसे बलि ह आगू म खड़े हे, अउ कहाँ जातिन बलि खोजे बर? अब तो सातों भाई मन उत्तारधुर्रा माटी के लोंदा काँट-काँट के नाथ के मुड़ी म फेंके लगिन। डेड़सारा मन के नीयत ल समझ के काँप गे नाथ ह; फेर कनिहा भर लद्दी म सड़बड़ाय वो बिचारा ह भला का कर सकतिस? कलप-कलप के प्राण के भीख माँगत हे शिव ह, फेर राक्षस मन के हिरदे म दया रहितिस तब न?……………’’
‘‘…..आगू का होइस चंपा?’’
‘‘दमाद ल मुँहीं म पाट के आ गे राक्षस मन। येती सतवंतिन ह जोही के चिंता म बिन पानी के मछरी कस तड़फड़ात रहय। भाई मन संग जोही ल नइ देखिस ते वोकर मन ह धार मार के रो डरिस। सदा दिन आगू-आगू रेंगइया जोही ह आज को जनी कहाँ पिछवा गे होही? घेरीबेरी मुहाटी म निकल-निकल के देखत हे। ये भाई तीर जा के पूछत हे, वो भाई तीर जा के पूछत हे। करनी ल कर के तो आय रहंय, का बतातिन चण्डाल मन?……..संाझ होय बर जावत हे, सूपा कस धार रझरझ-रझरझ रुकोवत हे बादर ह; चिरिरीरी ..चिरिरीरी……….बिजली चमकत हे; घड़घड़-घड़घड़ बादर गरजत हे। सब जीव-जंतु अपन-अपन ठीहा-ठिकाना म परान बचा के लुकाय हें। सतवंतिन ह निकल गे जोड़ी ल खोजे बर। कछोरा भिरे हे, कनिहा के आवत ले चुंदी ह बगरे हे। भाई मन छेंकत हें, भउजी मन छेंकत हे; बइहा पूरा ह ककरो छेंके छेकाथे का? न पाँव म पनहीं हे न मुड़ी म खुमरी हे, जकही-भुतही मन सरीख दंउड़त हे सतवन्तिन ह; खोचका-डबरा, भोंड़ू-भरका, नरवा-ढोंड़गा, डोली-बहरा, सब छलकत हे; कोनों म हिम्मत नइ हे, सतवन्तिन के रस्ता रोके के। चारों मुड़ा पानिच् पानी हे, पानी के मारे न जंगल ह दिखत हे, न पहाड़ ह दिखत हे, न रुखराई मन दिखत हे। धार मार-मार के चिल्लावत हे सतवन्तिन ह, ‘नाथ…. तंय कहाँ हस?’ सतवन्तिन ह जस-जस गोहार पारत हे, जोही ल पुकारत हे, जस-जस एती-वोती दंउड़त हे, तस-तस बिजली चमकत हे, चिरिरिरि………., बादर गरजत हे, घड़घड़ घिड़ीड़ि …….रझरझ-रझरझ पानी गिरत हे। ……..’नाथ तंय कहाँ हस?’’
‘‘नाथ के शरीर ह मुँही म बोजाय हे, निकले बर छटपटात हे, नरी ह दिखत हे, दुनों हाथ ह दिखत हे। शिव के गोहार ल सुन डरिस नाथ ह; वहू ह गोहार पारत हे, शिव……।’’
‘‘दूनों एक दूसर के गोहार ल सुन डरिन, दुनों एक दूसर ल देख डरिन, बंधिया-तरिया कस बड़े जबर बहरा हे जेकर मँुहीं म पटाय हे नाथ ह, मुड़ी अउ हाथ भर ह दिखत हे।’’
‘‘बगरे-छितरे चूंदी, भिरे कछोरा, का खोचका का डबरा, का भोंड़ू का भरका, सतवंतिन ह पल्ला दंउड़त हे अपन नाथ से मिले बर।’’
‘‘बजुर गिरे बरोबर बिजली कड़क गे, चिर्र ……..। अगास जइसे फट गे। अपन अनसंउहार वेग ल ले के गंगा मइया ह जइसे धरती म उतर गे। बहरा के मुँही ह गंगा के वेग ल भला संउहार सकतिस? फूट गे मुँही, बोहा गे नाथ ह अउ बन गे नदिया। गोहार पारत हे नाथ ह, शिव …………। एती ले शिव ह गोहरावत हे, नाथ…..मोला छोड़ के झन जा।’’
‘‘तब का दुनों झन नइ मिल सकिन?’’ अधीर हो के पूछत हे बाबू ह।
‘‘सच्चा अउ पवित्र प्यार करने वाला मन ल भला कोई रोक सके हें ? सतवंतिन शिव ह गंगा माई ले कहत हे, हे गंगा माई जइसे मोर नाथ ल अपन आप म समो लेस, वइसने महूं ल अपन कोरा म समो ले।’’
‘‘फेर बजुर गिरे कस बिजली चमक गे। फेर प्रगट हो गे गंगा मइया ह। बोहा गे शिव घला ह नदिया बन के।’’
‘‘नाथ ह सोझ बोहावत हे। शिव ल तो अपन जोही से मिलना हे, घूम के अरकट्टा बोहावत हे वो ह। गोहार पारत हे, नाथ……।’’
‘‘येती ले नाथ घला अपन सिव से मिले बर तड़पत हे, पुकारत हे, शिव ………..।’’
‘‘एक कोस, दू कोस …. बीस कोस। आखिर कतिक दूरिहा ले नइ मिलतिन? दूनों मिल गें अउ बन गे शिवनाथ । ………………’’
‘‘शिव ह घूम गे तउन पाय के वो ह जहरित हो गे घुमरिया के नाव से।’’
बाबू ह कहानी ल दम साध के सुनत रहय। एक आह भरिस अउ किहिस – ‘‘कतका दुखद अंत हे चंपा ये कहानी के?’’
‘‘ये ह कोनों मन के उपजे कहानी नो हे बाबू , ये ह तो प्यार के सच्चा कहानी आय। शिवनाथ तो साक्षात, कलकल-कलकल करत तब ले अब तक प्रगट रूप म हम सब के जीवन ल पबरित करत आवत हे। येला कहानी कइसे मान लेबे? कर सकथें का कोनों आज अइसन प्यार?’’

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इही कहानी ल सुरता कर-कर के बाबू ह रोवत हे। बाबू ह गुनत हे, नहीं..नहीं … कलजुग के कोनो साधारण नारी नो हे चंपा ह। वो तो सतवन्तिन के अवतार ए। ये बन के देवी आय; ज्ञान अउ शक्ति के भंडार। हे भगवान! ये मोर से का अपराध हो गे? साक्षात देवी के अपमान कर परेंव। जल के भसम काबर नइ हो गेंव? क्षमा कर देवी, क्षमा कर।
का कहिथे चंपा ह, ‘‘जउन मनखे ह सच्चा अउ पवित्र प्यार करथे वो ह देवता ले कम होथे का?’’ ………..वो ह तो मानुश घला नो हे, राक्षस आय, राक्षस; वो का जाने प्यार के मरम ल?
चंपा के सवाल ह रहि-रहि के बाबू के मन म घन मारत हे- ‘‘…….. कर सकथें का कोनों आज अइसन प्यार?’’
कइसे मुँहू देखाहूँ चंपा ल जब काली वो ह काम म आही?
काली काम म आही चंपा ह?
बाबू के जी धक ले हो गे जब दूसर दिन चंपा ह अपन समय म काम म हाजिर हो गे। कइसे नजर मिलाय चंपा से बाबू ह? अपन खोली म खुसर के कपाट ल बंद कर दिस।
चंपा ह अपन काम कर के चल दिस। आज के चंपा ह आन दिन वाले चंपा नो हे। कहाँ सबर दिन खुशी अउ हुलास म हुलसत, लहरावत-मेछरावत बदन वाले चंपा अउ कहाँ आज के ये दुख के दहरा म उबुक-चुबुक होवत उदास, अधमरही चंपा। बाबू ह बिन देखे जान डरिस चंपा के हालत ल।
आज तीन दिन हो गे हे, चंपा ह न ककरो संग हाँसे, न ककरो संग गोठियाय हे। दाई के मन ह कोनों अनहोनी के डर म रहि-रहि के कापँत हे। तिखार-तिखार के पूछत हे। दाई के मन म भुरभुस जना गे हे, बेटी के अँचरा ह अब मैला तो नइ हो गे हे; एक दिन जइसे वोकर अँचरा ह मैला हो गे रिहिस हे। बेटी ल तोशत हे – ‘‘का होइस बेटी, होना रिहिस तउन तो हो गे, काबर मन ल उदास करथस? ….. एखरे बर तो भगवान ह नारी के तन ल गढ़े रहिथे, एक न एक दिन तो ये होनच् रहिथे। ….. रो मत, भगवान ह मालिक हे।’’
दाई के बात के मरम ल समझत हे चंपा ह। रहि-रहि के दाई के बस इहिच् गोठ, कइसे समझाय दाई ल चंपा ह; वो जइसन सोंचत हे, बात वइसन नो हे। कहिथे – ‘‘दाई ,तहूँ नारी, महूँ नारी, ये देख मोर अँचरा ल, कही दाग दिखथे का तोला? ये देख मोर शरीर ल, छाती ल, कनिहा ल, कहीं कोई दाग दिखथे? चंपा ल कोनांे बात के दुख मनाय के घला अधिकार नइ हे का?’’
‘‘फेर का बात के अतका दुख मनात हस बेटी?’’

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का दुख ल बताय चंपा ह?
का के दुख हे चंपा ल? का ये बात के कि जउन आदमी ल वो ह दूसर से अलग समझत रिहिस, वहू ह दूसरच् मन सरीख निकलिस? का ये बात के कि जेखर ऊपर वो विश्वाईस करिस विही ह वोकर विश्वाास ल टोरिस? का ये बात के कि जउन ल वो ह देवता मान लेय रिहिस हे वो ह आखिर म राक्षस निकिलिस?
नहीं, नहीं कोन कहिथे वोकर बाबू ह दूसरेच् मन सरिख हे? वो तो लाखों म एक हे, कोई नइ हे दुनिया म वोकर बाबू समान।
तब का विस्वानस ल टोरिस हे वोकर बाबू ह?
नहीं, नहीं बाबू ऊपर तो आजो वोला वोतकच् विश्वासस हे। काली घला देवता समान रिहिस हे वो ह अउ आजो देवता समान हे वोकर बाबू ह। राक्षस होतिस बाबू ह, त का आज वो ह साबुत बाचे रहितिस?
वो दिन के, बाबू के बात के सुरता कर-कर के चंपा ल कभू रोना आथे त कभू हाँसी। का कहय? ‘‘सच बता चंपा तंय का मोर से प्यार नइ करस?’’……..मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?’’
धत्! बुद्धू कहीं के; प्यार ह का गोहार पार-पार के बताय के चीज आय? कि लुकाय-छिपाय के चीज आय?
तब का के दुख हे चंपा ल?
आज चार दिन हो गे हे बाबू ल वो ह देखे नइ हे। न घर ले बाहिर निकलत देखे हे, न काम म जावत देखे हे। न ककरो संग हासत देखे ह,े न ककरो संग गोठियावत देखे हे। न पढ़त देखे हे, न लिखत देखे हे। न खावत देखे हे, न पीयत देखे हे। बरतन के खाना ह बरतने म पड़े रहिथे, काला खावत होही? रात म का वोला नींद आवत होही? हे भगवान! कोन जाने, कोन हालत म होही मोर बाबू ह? बाबू ह अतका सजा भोगत हे त चंपा ह का मेछराही? हाँसही? गाही? नाचही?
बाबू ह अपन खोली म खुसरे हे। चंपा ह बाहिर ले कहत हे – ‘‘बाबू ! खोल न कपाट ल। अइसन का बात हो गे, का गलती हो गे मोर ले कि तंय अपन आप ल अतका सजा देवत हस?’’
बाबू भीतर ले सुनत हे, गुनत हे – ‘तंय तो देवी अस चंपा, तोर से भला काई गलती हो सकथे का?’
‘‘उठ बाबू, उठ! मंय अपराधिन, दसों अंगरी जोर के तोर से माफी मांगत हंव। छिमा कर दे।’’
बाबू के मन ह कहत हे – ‘नहीं, नहीं चंपा अपराध तो मंय करे हंव। अतका बड़ अपराध कि मोला तो तोर से क्षमा मांगे के घला कोई अधिकार नइ हे।’ बाबू के हिम्मत नइ होवत हे चंपा के आगू म आय के।
तंय कहत रेहेस न वो दिन – ‘‘मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?’’ तोला तोर विही प्यार के कसम हे बाबू ! कपाट ल खोल दे।
‘प्यार अउ बाबू के मन म? हूँ……। बाबू के मन म तो खाली वासना भरे हे चंपा, वासना। वो ह का जाने, प्यार का होथे।’ बाबू के मन चित्कार मार-मार के कलपत हे। चंपा के बात ह सुरता आवत हे, ‘‘दुनिया म जतका पवित्र चीज होथें, वोकरे मन के सार ले, वोकरे मन के सत् ले तो प्यार बनथे। आदमी के मन म तो दुनिया भर के मैल भराय रहिथे, आदमी ह का प्यार करही?’’
वोकर मन म तो मैल भराय हे, कइसे खोले कपाट ल? का मुँहू ले के जाय वो ह चंपा के आगू म?
चंपा ह कहिथे – ‘‘ठीक हे बाबू ! झन खोल कपाट ल; तोला अतेक दुख पहुँचा के अब भला मंय का जी के रहिहंव, जावत हंव, फेर सोच ले, काली तंय चंपा ल जीयत नइ देखबे।’’
अब तो बाबू ह कांप गे। चंपा ह जउन कहिथे; कर के रहिथे। धरालका खोल दिस कपाट ल।
बाबू के हालत ल देख के चंपा ठाड़ो-ठाड़ सुखा गे। दाढ़ी ह बाढ़े हे, चूंदी ह बगरे हे। चेहरा म बूंद भर रकत नइ हे। छै महीना के बीमार कस दीखत हे बाबू ह।
बाबू ह मुँहू ल ढ़ँक के बइठे हे। हिम्मत नइ हे वोकर चंपा के सामना करे के।
चंपा ह कहिथे – ‘‘का के अतका दुख मनावत हस बाबू? चंपा के ये शरीर ल भोग नइ सकेस तेकर? येला भोगे से तोला खुशी मिलही, तोर मन के संताप ह मिटही, ते आ, आज चंपा ह खुद तोला ये शरीर ल अर्पित करत हे।’’
आज अपन ये कोन से रूप ल देखावत हे चंपा ह? कउनो भी रूप होय, नइ हे हिम्मत बाबू क पास चंपा के ये रूप ल देखे के। बाबू के आखीं चुधिंया गे हे, नइ देख सके चंपा के ये रूप ल वो ह।; आँखी नइ फूट जाही? दूनों हाथ ल जोड़ के कहिथे – ‘‘बस कर चंपा, बस कर, मंय तो पहिलिच् अतका गिरे हुए हंव, अउ झन गिरा। जानथंव मंय, बहुत प्यार करथस तंय मोला; फेर मिही ह नइ हंव तोर प्यार के काबिल।’’
मना डरिस चंपा ह अपन बाबू ल; चंपा के मन हुलस गे। पुराना चंपा फिर लहुट के आ गे। खिलखिला के हाँस दिस; कहिथे – ‘‘ऐ बाबू! धोखा म झन रहिबे; काबर प्यार करही तोला चंपा ह? चंपा ह तो वोकरे ले प्यार करही, जेकर ले वोकर गांठ जुड़ही।’’
चंपा ह सोचत हे, बाबू! मन लगाना दूसर बात हे, बिहाव करना, जिनगी भर साथ निभाना दूसर बात हे। प्यार के नाम ले के शरीर के वासना के भूख ल मिटाना अलग बात हे, प्यार म जीवन ल कुरबान कर देना अलग बात हे। भगवान ह जीवन देय हे, जीये बर। जीवन म दुख हे, तब सुख तो घला हे। सुख-दुख दूनो ल भोगे के नामे हर तो जिनगी आय? प्यार करे से का मिलथे? मोर माँ घला हर तो ककरो से प्यार करे रिहिस; का मिलिस वोला? जउन ह वोला प्यार के भरोसा दिस, विही ह वोला छोड़ के चल दिस, प्यार के नाम म अइसन धोखा? कोन बिष्वास करही अइसन प्यार ऊपर? आदमी ल जीये बर प्यार नहीं, विश्वाखस चाहिये, समाज चाहिये। जउन प्यार के संग विश्वामस नइ हे, समाज नइ हे, वो ह प्यार के नाम म छलावा के सिवा अउ का हे?

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फागुन-चैत के महीना हे, जंगल ह महर-महर करत हे। आमा के पेड़ मन लटलट ले फरे हें। चार के पेड़ मन ह चिरचिर ले करिया-करिया पाके चार ले लहसे जावत हें। तेंदू के मीठ-मीठ फर के मीठ-मीठ खुस बू ले हवा ह सनसनावत हे। धनबहार ह सुंदर अकन पींयर-पींयर लुगरा पहिर के नवा दुलहिन सरीख मान करे बइठे हे। महुवा के पेड़ ले चाँदी कस फूल के रूप म रहि-रहि के मंद झरत हे। सागोन के पेड़ मन ह सूपा कस चाकर-चाकर पत्ताा ले लदा गे हें। बाबू ह महीना भर बाहिर रहे के बाद आज आय हे; वोला का पता, काली चंपा के बिहाव होने वाला हे?
जब ले चंपा के लगन धराय हे, चंपा के आँखी मन तरस गे हे बाबू ल देखे बर। रोज जंगल ले मीठ-मीठ चार टोर के दोना भर-भर के लाथे चंपा ह अपन बाबू बर, संझा-बिहाने बाबू के रस्ता देखथे, कोनों घला बस-टरक आथे, चंपा के जी धक ले हो जाथे; बाबू ह कहूं इही म आवत होही तब? रोज वोकर मन ह सूखे पात कस चूर-चूर हो के हवा म उड़ा जाथे। काली वो ह दूसर के हो जाही, तब कइसे मिल पाही वो ह अपन बाबू ले? दूसर के होय के पहिली छिन भर तो देख लेतिस वो ह अपन बाबू ल।
मड़वा छवइया मन मंड़वा छावत हें । संगी-सहेली मन बिधुन हो के दोहा पार-पार के लेंझा नाचत हें। हितु-पिरीतू मन सब सकलांय हे चंपा के बिहाव म। चंपा अपन खोली म बइठे हे उदास। जागत हे तब ले सपना देखत हे। सपना देखत हे बाबू के, सपना देखत हे खुद के, सपना देखत हे शिव अउ नाथ के, सपना देखत हे प्यार के ………..
कतका सुंदर-सुंदर हे बरतिया मन, कतका सुंदर-सुंदर पोशाक पहिरें हवंय, सरग लोक के देवता मन सरीख। सब अपन-अपन वाहन म सवार हें। आगू-आगू हे सोना के रथ, जउन म फंदाय हे लिलिहंसा घोड़ा, तितिली सही उड़ात हे रथ ह, जेमा बइठे हे दुल्हा राजा। का पूछना हे दुल्हा के सुन्दरता के, आदमी नो हे कोनों देवता हरे ये तो। आ गे दुवारी म बरतिया, आ के खड़े हे चंपा के दुवारी म दुल्हा बाबू ह, जउन ह चंपा ल रथ म बइठार के ले जाही अपन देश। ……. दुल्हा के स्वागत बर वर माला धर के निकलत हे चंपा ह, दुल्हा के मुँहू ल देखे बर जी ह व्याकुल हे। मंउर भीतर ले दुलहा के मुँह ह दिखत हे जगजग ले। चंपा के जी मारे खुशी के पंक्षी कस उड़ गे अगास म; काबर नइ उड़ही अगास म, बाबू ह आय हे दुल्हा बन के तब?
नहीं-नहीं, ये कइसे हो सकथे? बाबू अउ चंपा के दुल्हा? वो बाबू , जेकर एक दिन खुद वो ह तिरस्कार कर चुके हे; हिनमान कर चुके हे। का केहे रिहिस, ‘‘……….का तंय चंपा के मांग म सिंदूर भर सकबे? मोर से बिहाव कर सकबे? ……..तंय कर भी लेबे बाबू, मंय तो नइ कर सकंव न? तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे? ……।’’
आज का मुँहू ले के कहिही चंपा ह बाबू ल, ‘आ बाबू मोर मांग ल भर।’’
तब कइसे जीही वो ह बाबू के बिना?
बाबू के आय के खबर सुनके चंपा के मन ह नाचे लगिस, बाबू ह आ गे हे?

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बाबू ह अपन खोली म अकेला बइठे हे। कागज-पत्त र म मन नइ लगत हे। रहि-रहि के चंपा के चेहरा ह वोकर आँखी म झूलत हे। आखिर चंपा ल वोकर देवता मिलि गे? का कहय चंपा ह, ‘‘ये धरती म का एके झन ह अवतार लेथे? देवी के संग देवता ह तो घला अवतार लेथे न?………।’’
ये का देखत हे बाबू ह? चंपा ह साक्षात वोकर आगू म खड़े हे? हाथ म दोना हे, दोना म हे चार के मीठ-मीठ फर। आँखी म विश्वापस नइ होवत हे। मुँह ले निकल गे – ‘‘चंपा! तंय?’’
‘‘हाँ बाबू! मंय, तोर चंपा।’’
हरदी के रंग म रंगे चंपा के बदन ह लकलक-लकलक करत हे। छिन भर ले जादा नइ देख सकिस बाबू ह चंपा के दमकत बदन ल।
चंपा ह आज मन भर के देखही अपन बाबू के चेहरा ल; अउ कहाँ देखे बर मिलही?
जबान से कोनो कुछ नइ बोल सकत हें, पर दोनांे के मन, दोनांे के आत्मा ह आज बहुत कुछ बोलत हे, बहुत कुछ सुनत हे, बहुत कुछ महसूस करत हें; वो सब जउन ल मुँह से बोल पाना संभव नइ हे, कान से सुन पाना संभव नइ हे, आँखी से देख पाना संभव नइ हे।
बाबू के मन ह कहत हे, चंपा मंय जानथंव, तंय मोला कतका प्यार करथस, मुँह से चाहे मत बोल।
चंपा के मन ह कहत हे, धत्! मुँह से बोलना जरूरी हे का?
आखिर चंपा ह कहिथे – ‘‘बाबू! बहुत दुख पहुँचाय हंव मंय ह तोला, कहा-सुना माफ कर देबे।’’
‘‘नहीं-नहीं चंपा, अइसन झन बोल तंय। दुख तो मंय तोला देय हंव, मोर किता का नइ सुने होबे दुनिया वाले के मुख से तंय? बदनामी के सिवा भला मंय तोला अउ का देय हंव? ला, का लाय हस मोर बर दोना म, अपन बिहाव के मिठाई?’’
‘‘तंय कुछू नइ देबे बाबू?’’
‘‘का चाहिये चंपा बोल न?’’
‘‘वो दे दे बाबू, जउन जिंदगी भर मोर आत्मा म तोर सुरता बन के बइठे रहय, जेखर महक ल मंय जिदगी भर महसूस करत रहंव, जेखर सहारा मंय अपन जिंदगी बिता सकंव। …….. मोला अपन स्पर्श दे दे बाबू! मोला एक घांव तंय अपन अंग लगा ले।’’ लिपट गे चंपा ह अपन बाबू के शरीर ले, जइसे कोनो बेल के नार ह पेड़ के डारा म लिपट जाथे।
‘‘ये का करत हस चंपा तंय?’’
‘‘……………..।’’
‘‘एक पापी के अंग लग के अपन शरीर ल काबर तंय अपवित्र करत हस चंपा?’’
‘‘कल तो ये शरीर ह अपवित्र होबेच् करही बाबू।’’
‘‘धत्! कल तो तंय अपन देवता के परस पाबे,परस पा के देबी बन जाबे। कल अपन देवता ल, अपन नाथ ल का इही अपवित्र शरीर ल अर्पित करबे? कोन विश्वारस ल ले के कल तंय अपन देवता ल अपन पवित्रता के प्रमाण देबे?’’
‘‘……………..।’’
‘‘अगर तोर प्यार पवित्र हे, त वोला अइसन ढंग ले तंय अपवित्र झन कर चंपा।’’
‘‘……………..।’’
‘‘मंय जानथंव, तंय तो मोला पहिलिच् अपन आत्मा ल सौंप चुके हस चंपा, ये शरीर म का रखे हे? तंही ह तो कहिथस न – ‘……….शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे, घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल का मिलही मल-मूत्र के सिवा?……..।’ आज का तंय अपन बाबू ल ये घुरूवा ल सौंपे बर आय हस?’’
‘‘………………..।’’
‘‘एक बार, केवल एक बार तंय अपन जबान ले कहि दे चंपा कि बाबू! मंय तोर से प्यार करथों; बस।’’
बाबू के बात ल सुन के खिलखिला के हाँस दिस चंपा ह। बाबू से जउन वोला पाना रिहिस, पा लिस चंपा ह। मुक्त कर दिस बाबू ल। कहिथे – ‘‘धत्…।’’
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कुबेर