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कहानी

कहिनी : आरो

‘भइया’ आखर ह अघ्घन ल हलोर देथे। ओखर हिरदे के तार झनझना जाथे। ये मनखे मोला का जान-सुन के चेता के गईस हे? का मैं ह चोर नो हँव। ओखर अंतस ले आरो आथे… नइ तैं ह चोर नइ अस। तैं कब ले चोर बन गए? अघ्घन कथे नई-नई मैं चोर हंव। अभी-अभी बने हंव।
अ घ्घन ह ग्यारमी पढ़े रहीस। समझदार रहीस। फेर नारी परानी मन के तिरिक-तेरा अउ झगरा म अलगे हंड़िया कर डारे रहीस। एके म रहीन त ओला घर परिवार के जादा फिकिर नइ रहय। अब तो अकेल्ला। कमाबे त खाबे, अउ काम मिलही त? दू दिन काम पा जाबे त चार दिन बइठ। हमर सिक्छा बेवस्था ह पढ़ते साथ रोजगार देवाय के उदीम कहां करथे। कतको एम.ए.,बी.ए. करे मन गली गिंजरत हें। उपरहा ऐसों के दुकाल। सावन-भादों मन भठा दिन। खेत सुक्खा। पैरा तक नई लुईन।
बयसुरहा कस रेंगत अघ्घन बड़े दाऊ के मुंहटा हबरगे। मजमा लगे रहय। अघ्घन के पेट भुर्रियात रहय। सोचिस, बडे दाऊ के घर जाय म कोनो जुच्छा नई फिरैं। उधारी बाढ़ही नई मिलही त चहा-मुर्रा तो मिल जाही। अघ्घन दाऊ घर जाके पैलगी करके बइठगे। बड़े दाऊ पहटिया ल कइथे- अघ्घन बड़ दिन म आए हे जी, देख तो चहा-वहा के बेवस्था कर। अघ्घनके भूखे पेट के भूख अउ बाढ़ जाथे। फेर ओकर लईका के सुरता आ जाथे। सुरता आते साठ अघ्घन के भूख थीरा जाथे। नहीं दाऊजी अभीच्चे घर ले चहा पी के आए हँव। भइगे, नई लागै। अघ्घन पहटिया ल बरज देथे। मैं तो तुंहर दरसन बर आए हंव अघ्घन कहीथे. बड़े दाऊ अघ्घन ल नानपन के जानत हे। अघ्घन धीर सुभाव के हे। लपझप म, के छै-पांच म नई रहय। अघ्घन नीक लईका सुभिमानी रहय।
आधा घंटा बइठे के पाछू अघ्घन बड़े दाऊ के दरबार ले उठ के आगे। ओकर आंखी म लइका झूलत रहय। ओला संगी पूरन के सुरता आ जाथे जौन ह दू अढ़ई कोस दुरिहा कसबा म रहिथे। पूरन ऊंहा के कपड़ा दुकान म मंजूरी करथे।
पूरन के सुरता आते साठ अघ्घन के गोड़ कसबा डाहर म लक्कस-लक्कस रेंगे लागथे। रेंगत-रेंगत अघ्घन ल भात-साग के लोर आ जाथे। भूखाय पेट म कुछु खा-पी बड़ मीठाथे। अघ्घनल सोंध-सोंध महमहाय लागथे। ओकर नाक अउ जीभ सुते ले जाग जाथें। ओकर आघू म पातर चाउर के भात अउ रमकेरिया के अमटहा साग माढ़े हे अउ अघ्घन चटकार-चटकार के खावत हे। गहूं पिसान के थोपवा रोटी अउ आमा के अथान माढ़े हे। अघ्घन देखथे ओकर तीर म तेरस अउ लईका घलो मन बइठ के मंजा के खात हें। नजर फिरा के देखथे अघ्घन त ओखरे असन लाख-करोड़ मइनखे बइठ के जेंवत हें। थारी के जेवन सिराए नइ पावै के तुरते परोसा आवत हे। कोन दुनिया के मनखे हे तेमन रइ-रइ के जेवत परोस के सबो ला जेंवात हे। तेरस नानकून ल दार-भात सान के लाड़ू बना-बना के खवात हे। बड़े टूरा मनकू अउ टूरी दसोदा घलो खाए म मगन हे। ए कोन जग, कोन संसार ए?
बने सहीन कौंरा खाहूं कहिके अघ्घन हाथ लमाथे के बेर्रा, भड़ुवा बबा खया चोट्टा नी तो देख के नई रेंगस। आंखी फूटगे हे का? कहत एक झन मुटियारी अघ्घन ल झर्रस रे रहपटिया देथे। अघ्घन भोंचक ओकर मीठ सपना उझर जाथे। होस हुवास म आके बड़ पछताथे। अपने ले पूछथे अघ्घन का मैं चोट्टा हंव। चोट्टा ओखर हृदय म घन सहि परथे।
अघ्घन सोचत हे- चोर घलो मन तो मनखे होंथे। चोरी घलो तो बुता आय। बल्कि चोरी हर तो मुसकुल बुता आय। महुं चोरी करिहंव, मैं चोर बनिहंव। मोला कुछु तो कुछु बनना हे। चोरी करके महुं धन-दोगानी बनाहंव।
पूरन के घर डाहर जाए के गली छोड़ के बड़े बजार डाहर ओकर गोड़ उसल गे। कोनहा के रुख तरी ठाढ़ होगे। तभे एक झन मंझोलन उमर के मनखे सोनार दुकान ले निकर के आथे। ओ मनखे झोला म कुछु धर रहिथे। अघ्घन ठाढ़े ऐतीकरा ओ मनखे के सइकल माढ़े हे। ओ मनखे झोला ल सइकल के हेंडल म ओरमा देथे। झोला ल हेंडल म ओरमा के सइकल के ताला खोले के उदीम करथे। सइकिल के चाबी नइ मिलत रहय। हड़बड़ी म ओ मनखे झोला ल छोड़ के फेर दुकान डाहर चल देथे। अघ्घन के जी धकपका जाथे। हथौड़ा कस बाजत हे। जी कड़ा करके झोला ल टमरथे. झोला म जेवर माढ़े रहीथे। अघ्घन झोला ले पालथीन सहित जेवर ल धरके मुड़थे अउ सरपटा रेंगत भागथे। बजार के बाहिर आके सुन्ना म पिसाब करे के बहाना बइठके पालथीन ल खोल के देखथे। ओमा लगनहीन के जेवर मन रइथे। जेवर मन ल अपन पेंट अउ गुरथा के पाकिट म अलगे-अलगे धर लेथे।
अघ्घन थीरा के फेर बजार कती लहुट के आथे अउ ए दारीक आने गली म जाथे। ओकर मन म जेवर ल बेचे के विचार आथे। ओ सुरता करथे ओकर गांव के मंगल बजार केदिन कोन-कोन सोनार मन आथें। ओ सोचथे चिन्हास सोनार करा चुपेचुप जेन दाम दे दीही, बेच देहंव। खरचा-पानी तो चलही लागा घलो उतर जाही। तेरस बर लुगरा-पोलका अउ लईका मन बर ओनहा कपड़ा ले दुहुं।
असनहे सोच म अघ्घन बूड़त-उतरात रहय के, भइया, थोकन मोर सइकिल ल देखबे गा। केरियल म समान चीपाय हे, कहां उठा के ले जाहूं। मैं दू मिनट म आत हंव- कहत एक झन मनखे कोती दया भाव ले देखथे। अघ्घन देखते रहि जाथे। ओ मनखे अघ्घन के आंखी म का पढ़थे के ओकर भरोसा म समान छोड़ के चल देथे।
‘भइया’, आखर अघ्घन ल हलोर देथे। ओकर हिरदे के तार झनझना जाथे। ये मनखे मोला का जान-सुन के चेता के गईस हे? का मैं ह चोर नो हँव। ओकर अंतस ले आरो आथे- नइ तैं ह चोर नो हस। तैं कब ले चोर बन गए? अघ्घन कथे- नइ-नइ मैं चोर हंव। अभी-अभी बने हंव अउ ये सइकिल ल लेके भागे के बढ़िया मौका हे।
फेर जेकर अंतरात्मा नई मरे रहय, जे सुभिमानी रहिथे। तेमन अपन संस्कार ल नई भुलावैं। काकरो भरोसा ल हपके नई टोरे सकें। अघ्घन सोच म परगे। ओहा मोला भइया, कहीस। मोर भरोसा करके अपन समान छोड़के गए हे। मोला साव समझिस। ओकर अंतस फेर गोहराईस- तैं चोर कब रहे अघ्घन! चोरी अउ बेईमानी के जैदाद कै दिन पुरही? अघ्घन के चेहरा पखरा कस कड़ा होथे अउ आंखी म चमक भर जाथे। ओ फइसला कर डारथे- ये जेवर ल लहुटाना चाही। का जानी एकर खातिर बेटी-बहिनी के बिहा व उझर जाही अउ ओकर ददा-भाई…जेन होही तेकर ऊपर का बीतत हो ही। ओमन ल कुछु होगे तेकर भागी कोन। मैं अघ्घन। नई-नई मैं ये पाप के भागी नई बनवं। अघ्घन तुरते सोनार दुकान म गईस अउ वो मनखे के जघा पूछथे। ओ हर कसबा के रहइया रथे। अघ्घन ओकर घर पहुंचथे अउ अपन राम कहानी सुना के हाथ जोर के छिमा मांगथे। ओ सियान के आंखी डबडबा जाथे। अतके कइथे- काल बिहनिया ले मोर इहां बुता म आ जाबे।

अशोकनारायण बंजारा