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कहानी

कहिनी : धुरंधर महाराज

कपड़ा के नांव म कनिहा म नानकुन कपड़ा लटके के रिहिस। चुंदी छरियाय रिहिस। तन बिरबिट करिया। दांत निकले।
जाड़ म लुद-लुद-लुद-लुद कांपत रिहिस। बही ह टक लगाके आगी तपइया सबो झन ल देखत रिहिस कांही नइ काहत रिहिस। फेर ओखर आंखी काहत रिहिस- ‘थोर किन महूं ल आगी तापन देतेव गा।’ नाक ल सकेलत धुरंधर महाराज कथे। येला भगाओ इहां ले।
बिसेलाल गउंटिया, जगनू बर तमक गे- ‘तुंहरो बुता रे बाबू! निचट आलारैसी ताय। सुकवार के दिन अतका जड़ जग चालू होना हे अउ तुमन तुंगत हव। दूबी मां गाड़ा अरझाना त तुंहरे मन ले सीखना चाही।’ जगनू बतइस- ‘अभीच कुंआ पारा डाहर गे रहेंव गा। बनिहार खोजे बर। पन्दरा-बीस झन तियार होइन हे। काली ले बियारा के साफ-सफई शुरू हो जही।’
सुकवार के दिन बिसेलाल गंऊटिया ह अपना दाई के गरीबीन के बरसी मनावत हे। उही पाय के भागवत कथा करवावत हे। तेखरे तियारी म लगे हवयं। चार एक्कड़ के बड़का बियारा ल कोरी अकन बनिहार मन छोलिन अउ गोबर म लिपिन। तुरते समियाना, दरी आगे। बर रूख म पोंगा रेडिया बंधागे। बाजवट लगाके महाराज बर थोरकिन खाल्हे मं आसन मढ़इन।
बिकट साल पहिली बिसेलाल के ददा सोनसिंग गउंटिया घलो एक घांव अइसने बड़का जग मढ़ाए रिहिस। जेखर सोर चाराें मुडा उड़े रिहिस। नेट सात दिन तक भण्डारा खुले रिहिस। दूरिहा-दूरिहा के मनखे मन भागवत कथा सुने बर आए रिहिन।
भागवत कथा के कारड छपगे। बिसेलाल गउंटिया दुरूग के परसिध्द बिदवान धुरंधर महाराज ल कथा पढ़े बर नेवतीस। लक्ठा गांव के असोक महाराज ल बरन बइठे बर नेवतीस। सुकवार के दिन भागवत कथा सुरू होइस। बिसेलाल गांव के रमायन पालटी वाले मन ल तको नेवते रिहिस। रमायन पालटी वाले मन तबला, हारमोनियम धरके धुरंधर महाराज संग बइठ गे। महाराज भागवत कथा काहत जाय, बीच-बीच म परसंग के अनुसार भजन घलो गावय। रमायन पालटी वाले मन ओखर संग देवय। महराज एक ठन भजन गइस- ‘कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, बाद अमृत पिलाने से क्या फायदा…।’ रमायन पालटी वाले मन कोरस करिन। भजन के बाद महराज फरिहार के बतइस- ‘सानों! जनसेवा ह परभु सेवा होथे। असहाय, दु:खी, अनाथ मनखे मन के सेवा करे ले भगवान परसन होथे। कहूं हमन भगवान के रोज नांव जपत हन, रोज माला फेरत हन, फेर दीनदु:खी मनखे मन के सेवा नइ करत हन ते भगवान हमर ले कभू परसन नइ होय।’ भगत मन टक लगाके कथा ला सुनत राहंय अउ बड़ खुस राहयं। कथा सिराय, तहान गली-खोर, कुंवा पार, सबो जगा कथा के चरचा घलो होय।
पुस के महीना रिहिस। सबो झन के धान कोदो लुवा गे रिहिस अउ मिंजा-कुटा के कोठी म तको धरागे रिहिस। सबो झन ठेलहा होगे रिहिन, उही पायके भागवत कथा सुने बर सबो झन उम्हियागे। बिहनिया आवयं ते संझाकुन जावयं। मंझनिया कुन के खाय बर बेवस्था रिहिस। नास्ता-चाय घलो मिलय। रतिहाकुन बियारी करे के बाद कइ झिन सियान मन महराज तीर बइठे बर आवयं। महराज ला कांही पूछय। महाराज बतावय। भुर्री तापत-तापत सबो झन बइठे राहयं अउ धारमिक चरचा चलय।
अइसने एक दिन धुरंधर महाराज आगी तापत रिहिस। संग म चार-पांच झन सियान मन घलो बइठे रिहिन। धारमिक चरचा चलत रिहिस। फगनू, महराज ल पूछिस- ‘महाराज! मान लो कोनो मनखे भगवान म जल चढ़ाए बर अब्बड़ दूरिहा ले आवत हे अउ रद्दा म कोनो मनखे पियास के मारे तड़फत हे। त वो मनखे ला का करना चाही?’
फगनू डाहर ल देखत महराज कथे- ‘वो मनखे ल तुरते लोटा के पानी ला वो पियासा आदमी ल पिया देना चाही, काबर कि काखरो परान बचाना सबले बड़का पुन होथे। धरम के नांव मां ढोंग नइ होना चाही। अइसने भगत मन, महराज ल कांही पूछत जावंय अउ महाराज खुस होके जुवाब देवत जाय। कभू-कभू प्रेरक परसंग घलो बतावय।’
गोठबात अइसने चलते रिहिस। तइसने म एक झिन बही उही मेर अइस। कपड़ा के नांव म कनिहा म नानकुन कपड़ा लटके के रिहिस। चुंदी छरियाय रिहिस। तन बिरबिट करिया। दांत निकले। जाड़ म लुद-लुद-लुद-लुद कांपत रिहिस। बही ह टक लगाके आगी तपइया सबो झन ल देखत रिहिस कांही नइ काहत रिहिस। फेर ओखर आंखी काहत रिहिस- ‘थोर किन महूं ल आगी तापन देतेव गा।’ नाक ल सकेलत धुरंधर महाराज कथे- ‘ये कोन जकडी ए गा। एला भगाओ इहां ले। कोनजनी कब के नाहे खोर हे ते? दूरिहा ले बस्सावत हे। पवित्र अस्थान ल असुध्द करे बर जोम दे देहे।’ बही चिटपोट नइ करिस। दांत ह किट-किट, किट-किट बाजत रिहिस। बही ल नइ जावत देखके सुखीत ह नान-नान कोहा म फेंक के वोला अइसे डरहुवइस जइसे कोनो ह पिटपिटी सांप ल भगाए बर ओकर तीर तखार म कोहा मारथे। बही ओ मेर ले भगागे। महराज सुखीत डाहर देखिस मानो काहत हे- ‘बने करे महूं इही उदीम ल करे रितेंव।’
धारमिक चरचा एक पइत फेर सुरू होगे। अइसे-वइसे रात के गियारा बजगे। धधक-धधक के भुर्री बरत रिहिस तेनो जुड़ागे। सबो झन उसलगे। मनराखन अउ सोभित परछीच म सोइस। महराज तको थके मांदे राहय। अपन गद्दा मं जाके सुतगे। सोभित मुंदरहा ले रोज उठ जय। आजो लंघियात उठगे। परछी ले निकलिस ते झझक गे। राखर मां उही बही ह मरे परे राहय। हांत गोड़ अकड़ गे रिहिस। देखे म लागत रिहिस, जाड़ मं ठुठर के मरगे हवय। थोरकिन म महराज घलो अइस। लास ल देखिस, थोरकिन चुप रहिस, तहान बोलिस- ‘दुनिया के सबले बड़ा सच आय मृत्यु। जेन ये दुनिया म आए हे ओला एक न एक दिन जानाच हे। त एखर बर का सोक? आज ए बही के पारी रिहिस। हो सकथे काली हमर पारी होही। धुरंधर महराज उपदेस देत रिहिस। आने मनखे मन सुनत रिहिस। धुरंधर महराज ये जगा के शुध्दिकरन करे बर सुखीत ल गंगा जल लाए बर आरो दिस। सुखीत आडर पाते सांट उत्ता-धुर्रा दऊंडिस गंगाजल लाए बर…।’
यशपाल जंघेल
तेन्दूभांठा गंडई,राजनांदगांव