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कहानी

कहिनी : लछमी

मास्टर ह रखवार ल कथे- चल जी मंय तोला परमान भीतरी दूंहू आ कहिके रखवार अऊ रऊत संग गुरुजी ह भीतरी म जाथे, गरूआ मन ओला देख के बिदके ल लगथे एती-ओती भागे ल धरथे त रखवार ह हांसथे- ले जम्मो तो तोला देखके भीतरी म भागथे बड़ा गाय वाला बनथस। मास्टर कथे अभी देख न जी परमान ल अऊ मास्टर ह हूंत कराथे- अरे सुकवारो, लछमी गायत्री, बुधियन्तीन, सुक्रती, सुती आओ लछमी दाई हो। गाय मन ओरी पारी आगे मास्टर के चारो कोती झूम जथे।

भभगवान ह सिरीस्टी ल जब बनईस, तब जीव-जन्तु, मनखे मन ल परानी के नाव म बनईस, ओमा सबसे ऊप्पर जगा मनखे मन ल मिलिस अऊ सिरीस्टी के जम्मो जिनीस ल मखने मन अपन सुख-सुबिधा बर बऊरीन।
मनखे मन ल तो भगवान ह बोले बर जवाब दे दिस फेर जीव-जन्तु ह मोकाय होगे, तभो ले समझे- जाने ले ए गोठ ह पता चलथे के मनखे कस जिनावर मर में घलव मया- पीरा, अऊ दुलार ल पाए के देय के समझ रहिथे, ओमन अपन मुंहू ले नी कहे त का होगे होईस, ऊंखर मया ह मनखे के मया ले थोरकोच कमती नी रहय, अतेक मोर कहे के पीछू एक ठन कहानी हे।
अलबेला गांव म एक झन मास्टर- मास्टरीन रहंय, जेखर एको झन लईका नी रिहीस, मास्टरीन ह अब्बड़ सरल सुभाव के रहय, परानी मन बर मया करईया रहय, वो ह एक दिन मास्टर ल कथे- ‘एको ठन गाय रख लेते का? पुन-धरम के बूता ए, घर मा दूध दही हो जतिस, मोरो बेरा ह ऊंखर सेवा म बीत जातीस। मास्टर कथे- बने गोठ ल बताएस मास्टरीन, मय ह कालीच पता करहूं, गांव मं कोन्हो बेचत होंही त बिसा लेहूं।’
गांव के एक झ बनिहार ह खाय कमाय बर नागपुर जाव रिहिन तो वो हा अपन एक ठन मरही असन गाय रहय तेन ला बेचहूं कहिके जोंगे रहय, तइसने म मास्टर के मनसा ल जानके, वो हा अपन गाय ल पांच सौ रुपिया म ओखर बछिया पीला संग बेच दिस, गाय ह निच्चट हड़गी रहय, बछिया ह ओखर पहिली पीला अऊ लेवई रहय एक पाव दूध देवय कहिके मास्टर ह ओला बिसा के घर ले आनिस।
मास्टरीन ह खुसी-खुसी गाय बछरू के आरती उतारीस, अऊ अपन अंगना म बांध के ओखर बर खाय के बेवस्था करिस।
मास्टर कथे- ‘गाय ल लान तो लेंव मास्टरीन, फेर एखर रंग रूप ल देखके मोला नई लागय के एहा जादा दिन ले जीही।’ तब मास्टरीन कथे- ‘अईसा झन गोढिठयावव, बे बने खाए पीए बर पाही अऊ सेवा जतन होही त इही मोर ‘जमना दाई’ ह सुन्दरा जही।’ मास्टर कथे- ‘का दई’? मास्टरीन फेर अपन गोठ ल कथे- ‘जमा दाई मंय अपन गऊ माता के नाव ल ‘जमना दाई’ रखे हंव।’
त मास्टर हांसथे अऊ कथे- ‘भला इहू कोन्हो मनखे तनखे ए जेखर नाव रखबे, फेर ओखर लईका हवय, अऊ परवार बाढ़ही तब?’ तब मास्टरीन हंस के कथे- ‘परिवार बाढ़ही त ओखरो नाव रखहूं’ ए जमुना दाई के आसीद ले मोरो परवार बाढ़ही मय ए बछरू के नाव ‘सुकवारो रखहूं’ मास्टर ओखर मुंहूं ल देखथे, अऊ कथे- ‘भला ए हर का नाव होईस?’ मास्टरीन हंस के कथे- अरे आज सुकवार हरे न, अऊ मोर घर लक्ष्मी दाई पधारे हे तब ओखर नाव सुकवारो रखहूं। ‘ठीक हे भई जईसन तोर मरजी’ कहात दूनो परानी ओखर बेवस्था म लगगे।
कुछ दीन के गे ले गाय बछरू के रूप रंग ह बने चारा पानी पईस, तहं ले हरियागे, मास्टरीन के सेवा जतन ले ओखर गाय, जऊन एक पाव दूध देवत रिहीस तेन ह एक-एक किलो संझा बिहनिया देबर लागसि, मास्टर मास्टरीन खुस रहंय।
एती धीरे-धीरे जमुना के परवार बाढ़त गिस, एक नार सात ठन बछिया पीला अऊन एक ठन बछुआ पीला दीस, मास्टरीन के कोठा ह भरगे, अब ओखर कोठा म सुकवारो, गायत्री, सुक्रुती, सुन्ती, बुधियान्तीन, संतोषी, अऊ लक्ष्मी नाव के बछिया रहंय, अब जमना गाय ह बुढ़ियागे रहय त मास्टरीन ह ओखर बर कनकी, कोड़हा, कुटकी अऊ खरी ल चुरो-चुरो के ओखर बर खिचरी बना के देवय, अऊ गऊ माता के सेवा ले भगवान ह मास्टरीन के कोख ल घलव चिनहीस, ओखर एक झन बेटा होईस अब तो मास्टर-मास्टरीन के खुसी ह समुन्दर बनगे रहय।
एती मास्टरीन के लईका ह पांच बछर के होईस तहां एक दिन जमना गाय ह अपन चोला ल छांड़ दिस, मास्टरीन के रोवई रहय ओला अईसे लागय जानो-मानो ओखर दाई ह संग ल छोड़ के चल दिस।
ओखर जम्मो बेटी मन नरिया-नरिया के मास्टरीन के दुख ल हरे के कोसिस करंय, फेर मास्टरीन ह जमुना दाई बर गजब सुरहरे। ओखर दिन भर के बूता ह छूटगे रहय त अऊ जियानय, फेर समे ह सब दुख हरथे, अईसने चार महिना के गे ले जमुना के बेटी सुकवारो ह एक ठन बछिया पीला दिस, तब मास्टराीन ल लागय ओखर जमुना गाय ह लहुटके आगे। जमुना के सब्बो पीला मन गजब मनखहिन रहंय, अऊ ते अऊ कोन्हो ह गाभिन रतिस त जनमे के बेरा म लहुट के कोठा म आपिस आ जावयं, नी ते घर ले बाहिर नी जाए। मास्टरीन ह घलो मनखे मन कस ऊंखर जतन करय, छट्ठी कस गुड़-चना के लाड़ू अऊ सोठ, गाय मन ल खवावय।
मास्टर कना एक ठन फटफटी रहय जेमा गजब सुग्घर मिजुक बाजय, जेनला सुनतीस तहां गाय मन कोठा म नरियाय बर धर लेंवय, तहां मास्टरीन जान डारतिस के मास्टर ह इस्कूल ले आगे।
कए घंव मास्टर-मास्टरीन के आने गांव म बदली हो जथे, तब वो मन ह अपन गाय-गरू ल घलव बनिहार करके लगे जथे, अऊ नवा जगा म जाके रहि बस जथे। फेर जिनावर म अपन जुन्ना डीही डोंगर ल लघियांत नी भुला पांय कथे, अभी महीना दिन नी होय रहय, जम्मो गाय मन गांव के बरदी ल छोड़ के भगागे। लहुट के घर नी अईस, तब मास्टर-मास्टरीन गजब खोजवईन, जुन्ना गांव म घलव पता करवईन फेर ओखर गाय मन नी मिलीस, मास्टरी के तो जम्मो सुख-चैन भगागे, गांव-गांव कांजी हाऊस म पता लगाहूं कहय मास्टर ह, त मास्टरीन ह कहय- ‘मोर लक्ष्मी मन हरही-चोरही नईए मास्टर, जेमा काो ह कांजी हाऊस म ओईलाहीं, मोला डर लागथे- वो रोगहा कोन्हो कसई मन झन लेग जावंय, अऊ मास्टरीन ह बोबिंया के रोय लगथे, मास्टर बिचारा काय करय गजब समझावय, आखिर म मास्टर ह स्कूल ले छुट्टी ले के अपन रऊत संग आस-पास तीर-तखार के गांव म जाथे त पता चलथे के अर्जुनी गांव के कांजी हाऊस म अनचिन्हार गरूवा मनप ल बोईलाय हवंय।’
मास्टर ह वो गांव के कांजीहाऊस कना जाथे, तहां ओखर फटफटी के मिजुक ह सुनाथे, तहां गरूवा मन ह नरियात खोली ले निकल के अंगना म आ जथे, त मास्टर ह थोकिन चीन्हे नी सकत रहंय काबर के ओ गरूवा मन ह दुबरागे रहंय, अपन चारा ल नई खावंय, अपन मालिक-मालकिन के सुरता म ऊंखर आंखी के चारों खुंट आंसू चुचुवा के सुखाय रहय, जेनेहा ऊंखर आजू-बाजू के रूआं-रूआं ह कड़कड़ावत रहंय, ओतकी बेरा कांजी हाऊस के रखवार ह आके पूछथे- ‘काय जी, कोनस काबर खड़े हस?’ तब मास्टर ह कथे- ‘मोर गरवा मन ल तंय ह काबर ओईलास हस?’ मंय लेगहूं छोड़ दे तब रखवार कथे- ‘पहिली तंय हा गांव के सरपंच कन लिखवा के लान, तब मंय मानहूं, तोर गरवा ए तेखर का परमान हे?’ तब मास्टर संग रऊत ह कथे- ‘मय ह चराथंव मंय चिन्हे हंव गुरूजी के गरवा म ल छोड़ दे।’
एती मास्टर कथे- ‘सून जी रखवार मंय ह दू महिना ले गांव-गांव म मोर गरूआ मन ल खोजथंव, अब मोला जा के पता लगिस, भईया मंय ह अपनेच गरवा ल तो अपन कईहंव, दूसर के ल थोरेच मोर बताहूं?’
रखवार कथे- नई भई मय अइसन नी मानंव?
मास्टर कढथे- ‘ओमा एक ठन गाय ह गांभिन हे।’ रखवार कथे- ‘इहां अईसन कतकोन आथे जी, फेर बिगर परमान के मंय अनचिनहार मनखे ल नी देवंव।’ रखवार घलव अपन जगा म सही रथे भई नियम तो नियम रहंय, फेर एती मास्टर के जीव घलव कल्ला जथे। वोहा रखवार ल कथे- चल जी मंय तोला परमान भीतरी दूंहू आ कहिके रखवार अऊ रऊत संग गुरुजी ह भीतरी म जाथे, गरूआ मन ओला देख के बिदके ल लगथे एती-ओती भागे ल धरथे त रखवार ह हांसथे- ले जम्मो तो तोला देखके भीतरी म भागथे बड़ा गाय वाला बनथस। मास्टर कथे अभी देख न जी परमान ल अऊ मास्टर ह हूंत कराथे- ‘अरे सुकवारो, लछमी गायत्री, बुधियन्तीन, सुक्रती, सुती आओ लछमी दाई हो। गाय मन ओरी पारी आगे मास्टर के चारो कोती झूम जथे अऊ नरियाथे।’
रखवार के मुहूं ह नानकीन होगे रहय, एती मास्टर अपन गरूवा मन के पीठ ल खजुवात पूछथे- ‘अब अऊ कुछू परमान लेबे का रखवार?’
‘नहीं गहुरूजी मंय जान डरेंव ए तुंहरेच गरूआ ए’ कहिके रखवार ह जम्मो गरूवा ल छोड़ देथे।
सबो ल धरके मास्टर ह फेर घर लहुट जथे, मास्टरीन ह जम्मो ल लहुटे देखके चऊंक पूरे दीया बार के, गाय मन के आरती उतारथे आंखी म आंसू भरे कथे- ‘मोर लछमी आई हो अब मोर कोठा ल कभूच झन झोड़िहव।’
सब्बो गाय मन हुमस-हुमस के नरियाथे अऊ खुसी-खुसी अपन-अपन कोटना म जाके बोरा दाना खाय बर लगथे, मास्टर-मास्टरीन ह अपन आंसू ल पोंछ के हंसत ऊंखर पीछ ल खजुवाए लगथे। 

श्रीमती सुधा शर्मा

ब्राह्मणपारा राजिम

One reply on “कहिनी : लछमी”

सुधा दीदी बहुत ही बड़िया हे तोर कहानी हा
पढे मा मज़ा आगे

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