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कविता गीत

किसान

धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान ।
मैं तो तोला जांनेव तैं अस, भुंइया के भगवान ।।

तीन हाथ के पटकू पहिरे, मूड म बांधे फरिया
ठंड गरम चउमास कटिस तोर, काया परगे करिया
अन्‍न कमाये बर नई चीन्‍हस, मंझन, सांझ, बिहान ।

तरिया तिर तोर गांव बसे हे, बुडती बाजू बंजर
चारो खूंट मां खेत खार तोर, रहिथस ओखर अंदर
रहे गुजारा तोर पसू के खिरका अउ दइहान ।

बडे बिहनिया बासी खाथस, फेर उचाथस नांगर
ठाढ बेरा ले खेत जोतथस, मर मर टोरथस जांगर
तब रिगबिग ले अन्‍न उपजाथस, कहॉं ले करौं बखान ।

तैं नई भिडते तो हमर बर, कहॉं ले आतिस खाजी
सबे गुजर के जिनिस ला पाथन, तैं हस सबले राजी
अपन उपज ला हंस देथस, सबो ला एके समान ।
धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान ।।


पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’