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कुकुर मड़ई माने डॉग शो अउ डॉग ब्‍यूटी कान्टेस्ट – गुड़ी के गोठ

नवा जमाना संग नवा-नवा चरित्‍तर सुने ले मिलथे। पहिली तीज-तिहार, मेला-मड़ई के नांव सुनते मन कुलके अउ हुलके ले धर लेवय। काबर ते एकर ले अपन गौरवशाली परम्परा अउ संस्कृति के चिन्हारी मिलय। फेर अब अइसे-अइसे आयोजन होथे, ते वोकर नांव ल सुनके तरूवा भनभना जथे। अभी हाले के बात आय राजधानी रायपुर म ‘कुकर मड़ई’ होइस। अंगरेजी म एला डॉग शो अउ डॉग ब्‍यूटी कान्टेस्ट घलोक कहिथें। वइसे तो पश्चिमी देश मन म अइसन किसम के आयोजन ह कहूं न कहूं होतेच रहिथे। एकरे सेती उहां के जीवन शैली घलोक एकरे मन असन हे, जीवन साथी के रूप म कभू एक झन बर समरपित अउ विश्वसनीय नइ दिखय। फेर हमर देश के बात आने हवय इहां हर चीज ल पाप-पुण्य अउ धरम-करम के नजरिया ले देखे जाथे। एकरे सेती जब कुकुर मड़ई जइसन आयोजन कभू इहां होथे, त जी तरमरा जथे। वलेंटाइन डे के नांव म प्रेम के खुला अउ भौंडा प्रदर्शन अउ कुकुर मड़ई लगभग संगे-संग होइस। हमन वेलेंटाइन डे या प्रेम दिवस के विरोधी नइ अन फेर वोला इहां जेन रूप म प्रदर्शित करे जाथे, वोकर जरूर विरोधी हवन। वोला जइसे इहां आने परब मनला शालीनता अउ मर्यादा के अंतर्गत मनाए जाथे वइसे मनाए जाही त भला काबर कोना वोकर विरोध करहीं? फेर जब वो एकांत प्रेम के दृश्य ल चार लोगन के आगूं म देखाए जाही त निश्चित रूप ले हर मर्यादित आदमी वोकर विरोध करही। 
इही किसम जेन देश के अधिकांश मनखे गरीबी रेखा ले नीचे जीवन यापन करथे, जिहां भूख के मारे कतकों मनखे काल के गाल म समावत रहिथें। जिहां के लइका मनला न तो बने गढऩे के कपड़ा-लत्‍ता, दवई-दारू, अउ पढ़ई-लिखई के अवसर नइ मिल पावत हे, वो देश म विदेशी नसल के कुकुर मन के प्रदर्शनी आयोजित करना, वोकर मन के खूबसूरती के प्रतियोगिता (ब्‍यूटी कांटेस्ट) आयोजित करना निश्चित रूप ले पीरादाई हे, दुखदाई हे। कुकुर मड़ई के आलोचना करे के ये मतलब घलोक नइए के हमन पशु-पक्षी या अउ कोनो जीव-जन्तु के अच्छा जीवन स्तर के विरोधी हवन। अइसन बिल्कुल नइहे। फेर जब हमन इंसान होके दूसर इंसान मनला लांघन-भूखन छोड़ के जीव-जन्तु बर अपेक्षा अउ आवश्यकता ले जादा खरचा करबो त इहू ह फभे के लाइक बात नोहय। 
भारतीय संस्कृति के नांव म बाहरी रहन-सहन अउ भोग-विलास के जब लोगन विरोध करथें त कभू-कभू वोकर मन के विरोध के सुर संग सुर मिलाए के मन करथे। वोकर असल कारण एदे अइसने कुकुर मड़ई कस आयोजन हर आय। ए बात अलग हे के आज कुछ राजनीतिक दल वाले मन भारतीय संस्कृति के नांव म हर विदेशी संस्कृति अउ जीवन शैली के विरोध करथें। फेर हमन वो श्रेणी के बिलकुल नइ हन। हमर तो बस अतके कहना हे, के जब इंसान के रूप में जनमे हन त पहिली इंसानी भूख के व्यवस्था करन, फेर पाछू आने जीव-जन्तु अउ उंकर ढकोसला के। ढकोसला शबद के उपयोग मोला ए सेती करे बर परत हे, काबर ते मैं इहां के कई अइसन आदमी मनला व्यक्तिगत रूप ले जानथौं, जेन अपन कुकुर-बिलई बर तो खीर-तसमई अउ एयर कंडीशन के व्यवस्था करथें। फेर जब ओकरे घर के नौकर-चाकर मनला देखबे, वोकर मन संग होवत शोसन अउ अन्याय ल देखबे, त अइसन पशु प्रेमी मन ऊपर, एकर मन के करतूत ऊपर खखार के थूके के छोड़ अउ काहीं नइ होवय। 
राजधानी के कुकुर मड़ई म सकलाय जम्मो कुकुर मालिक मन के घर म लगभग अइसन दृश्य ल देखे जा सकथे। तब तो हमला ये कहे के अधिकार बनथे न के अइसन विदेशी ढकोसला के प्रदर्शन ल बंद होना चाही।
सुशील भोले
सहायक संपादक – इतवारी अखबार
41191, डॉ. बघेल गली
संजय नगर, टिकरापारा, रायपुर