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कहानी

गुरुबाचा कहिनी – किसान दीवान

एक दिन अपन ल संवासे नी सकिस सुखरू। घातेच किलोली करके भतीजा के बिहा में संघरना जरूरी हे, ओखर दई-बाप नइए, अइसे ओखी करके, छुट्टी मा गिस। कन्हैयालाल मानेजर नंगत सुलहारिस, सेधे के लईक उल्था देईस। जल्दी तरक्की देय के वादा करिस। फेर सुखऊ मानबे नी करिस अउ आज दू हफ्ता होगे। नउकरी खोजत किंजरत हे। नउकरी मिले त झन मिले, बीए डिग्री तो पूरा करनाच हे। दही बरा सपेट के पइसा पटईस अऊ चलिस संगी मन सन मिले बर। रसता म एक झन गुरुजी मिलिस बिसनाथ पटेल। देखतेच बलईस, पूछिस- सुने हंव तैं पेंटिग काम छोड़ देय काबर? ”हां गुरुजी, अऊ पढ़हू कहिके।” ”डेरी गोड़ के चूरा, पीतल तोड़ा धमतरी के सदल में कुदाले घोड़ा”
सतजुगहा ददरिया के सुग्घर बोल सुरता करत, सुखऊराम हर मठपारा ले बिलईमाता कोत घोड़ा दौड़ाय के मजा लीस। संझाती बेरा में सकेला सदल हर बजरहा रोहों-पोहों म सनाय राहय। एक ठन ठेपर्री होटल म चाहा पीईस अऊ रेंग दीस गोकुलपुर होवत जालिमपुर के बसनाहा पारा कोत। सोंचे रिहिस हे अनंदी भइया घरे म होही। ओड़िया मन के बरहा अऊ बंगाली मन के बदक ओनहा-कोनहा ल खिंधोलत रिहिस, फेर अनंदी नई रिहिस घर म। सुखऊ चल दिस ओकर दफ्तर कोत। एक मन आगर मिलिन अऊ अनंदी ओला रात भर रुके बर किहिस, अनंदी भारतीय खाद्य गोदाम म चौकीदार राहय। सुखऊ, एको ठन नान-मुन काम खोजत राहय। बिलईगढ़ ले सुखऊ चिट्ठी भेजे रिहिस-भइया ये हरर-हरर किंजर के पोस्टर बनई तो चर दिनिया बुता हे। ऊहूं म ये गोहड़ी मोला पोसावत नई हे…।
रात कन उही दफ्तर के परछी मं सुते के तियारी होइस। अनंदी अऊ तीन इक चौकीदार छोकरा मन नंगत बेर ले ही-ही बक-बक करत रिहिन। फूहरे-फुहर बकंय घलो। पइसा के तंगई, महंगई अऊ दोगलई के किस्सा गोठियात संसो करत राहंय। सुखऊ सोचथे- बाप रे, चौकीदार ले अपीसर मन बर कतको भितरौंधी कमई के रद्दा हे तभो ले पइसा के तंगई रथे। तभे गोठ बात म एक झन कथे-
”अरे अनंदी भाऊ वो नांदगांव वाला केस सुने हवस?”
”हां यार” अनंदी अपन आदम म ऊंचहा भाखा म किहिस। ”अबे ओकर कुछु नी होइस, सात चुंगड़ी गहूं अऊ पांच चुंगड़ी चउर रिहिसे।”
”सक्कर तो घला रिहिस का रे” एक झन हा तिखारिस। गोठ-बात म राशन के हेराफेरी पकड़ा गिस। फेर कुछू सजा नी होइस। जोरहा दबाव म जांच रिपोर्ट देय गिस- सब घुना गेय रिहिस। ”खाथे जी सब खाथें साले” लमगोड़वा चौकीदार कथे-”काहे मेजाल्टी होना चाही, फेर कोनो टेड़गा नी कर संकय।”
ये बात सबे ला सेध गेय रिहिस। एक झन कथे, ”अऊ का जी कुछू नी होय, कतको जगा तो चौकीदार मन मजा मारत हें। हमीमन जोजवा हन।”
आज काल इही संसो पेरत हे सब झन ला। अनियाव, दोगलई, घपला, दादागिरी नी कर सके, तेला सब झन अलगोजवा कथें। तेकरे सेती नीत-धरम वाला मन अपन ला छोटे समझे धर लिन हें।
बिहनियां, सुखऊ जल्दी तियार होइस। पहिली बस म घला भीड़ गंजाय राहय मन मढ़ाय बर वोहा एक ठन किताब निकालिस, ते कतको झन के आंखी ले लार चुही गे। दू झन तो किलोली करके पत्रिका मांगिन, मन मड़हईन। एक झन अऊ मांगीस, फेर सुखऊ नई दीस। मने मन कंझईस-अइसने नान-नान जिनिस ल जिहां-तिहां काबर मांगथें। सकत नई चले ततका सुवारथ काबर बढ़ाथैं? रइपुर बस टेसन हबरत ले, झांझ-घाम उलहा गेय राहय। सुखऊ रोको-पोको उतरिस अऊ रेलवही कोत रेंगिस। बस्ती टिकिटघर म रेलवे समय सारिणी के बाजू म परिवार नियोजन के तीन बच्छर जुन्ना पोस्टर दिखिस। ओमा फदफद्दा पान पुरके राहंय। सुरता आथे अइसने पान पुरकई तो ठंव-ठंव हे। कचरा अऊ बसउना के सब कोती राज हे। बस अऊ रेल टेसन म तो जगा-जगा थूकन कोटना (पीकदान) रखाय रथे। फेर जनता के राज हे न परजातंत्र। चरझनिया जगा होय तो कुछू जीनिस, सब ला मइलाय के हथियाय के बिगाड़े के अधिकार हे कोन हे कहइया..?
अपन सुवारथ म छंदाय मनखे मन, थोरकन कमा के अऊ बिन कमाय, जादा ले जादा पाय के, बगोड़े के तिकड़म मं बेंझाय हवैं। कुछू करे बिना, खतरिहा कमेलहा के खड़री ओढ़े के चलन कती ले, कइसे पसर गे? कोन जाने? गुनत-ओरखत बिसरू थोरिक बेर म महासमुन्द बस देख पारिस। छूटतेच रिहिस, हांत हलात दउड़िस, धरा रपटा चढिस। बेरा ढरकत महासमुन्द पहुंच गे। मन हरछिन्छा, उलहाय कस लागिस। पेट कुलबुलात रिहिस। चल बने कुछू खा लेंव, बाबूलाल होटल मां सेव-बुन्दी अऊ बालूसाही सबले जादा भाथे। गरमी बहुत हे, आज दही-बरा खा लेथों, सोंच के मंगईस-गपागप झाड़िस। सुरता म कानपुर के अलका पब्लिसीटी संग बिताय हाल-चाल तऊर गे… अइसे तो कोनों होटल मं जुरिया के खावन। फेर कभू-कभू सांझ कन अपन हांत जगन्नाथ वाला खाना-पीना चले। खाय के पहिली सब झन भांग घोट के, पेड़ा-बरफी संग खावंय। सुखऊ कुछू लिखा-पढ़ी करत राहय, पेड़ा-बरफी तो मिलबे करे।
भांग चढ़े, तभे खांवय, सुखऊ ल पहिली ले जोजिया के खवा देंवय। काबर के ओमन अड़बड़ बकबकाय। आंटा टेर्री करंय। एको घांव झंझट गहिरा जावय ते ”मारिच डारहूं रे” धमकी चलावंय। सुखऊ भीतरे भीतर कपसत राहय। ऊंकर उर्रही भाखा म बपरा के पोटा सुखात राहय। कहूं कोनो बात ओकर कोत धंवाही, त काय करही? पल्ला भागही… भिरभिरा जाय सुखऊ के अंतस। वोहा बिन गतर के लवारिस कस हो जाय। कहूं एको दिन ये बइझड़ मन मार के फेंक देही त? सिहर जाय अइसन सोच के। वोला संसो पर जाय इंकर सन रहिके वहू घला उजड्ड अऊ बकराहा हो जाही।
एक दिन अपन ल संवासे नी सकिस सुखरू। घातेच किलोली करके भतीजा के बिहा में संघरना जरूरी हे, ओखर दई-बाप नीये, अइसे ओखी करके, छुट्टी मा गिस। कन्हैयालाल मानेजर नंगत सुलहारिस, सेधे के लई उल्था देईच। जल्दी तरक्की देय के वादा करिस। फेर सुखऊ मानबे नी करिस अउ आज दू हफ्ता होगे। नउकरी खोजत किंजरत हे। नउकरी मिले त झन मिले, बीए डिग्री तो पूरा करनाच हे। दही-बरा सपेट के पइसा पटईस अऊ चलिस संगी मन सन मिले बर। रस्ता म एक झन गुरुजी मिलिस बिसनाथ पटेल। देखतेच बलईस, पूछिस- ”सुने हंव तै पेंटिग काम छोड़ देय, काबर? ”
”हां गुरुजी, अऊ पढ़हू कहिके” सीताराम कस सुखऊ कहिस। ”पढबे?” गुरजी के मुहूं जानो-मानो भसियागे, मन तिरिमिरागे- ”काय करबे पढ़के? नेतागिरी? धुन बाबूगिरी?” ”नीहीऽऽऽ” तगड़ा छटारा खाय कस दंदर गे, अतेक गंसिया ताना सुनके अकलहा गीस सुखऊ। गुरुजी खचित जानथे। गणित-बिज्ञान म सबले हुसियार रेहे के सेती, सबे गुरुजी मन ओला। बाबू, पटवारी, कस उल्लुर नउकरी के जगा इंजीनियर बने के असीद अऊ हौसला देवंय। भीतरी ले सेधाय ताना म सुकुड़दुम राहय सुखऊ। त गुरुजी हर उमेलथे।”
”अरे लिख-पढ़ के आखिर उही नउकरी बर, जिही-तिही करा नाक रगड़बे ना… ककरो जेब भरबे, किस्मत ले मिली जाही ते डेढ़ दू सौ रुपिया म गुलामी करबेना? उहां खा-पी के ढाई सौ रुपिया मिलत रिहिस, का टूटा रिहिसे?” गुरुजी थोरिक मयारू कस पुचकारिस- ”तैं तो बाबू, अपन कला के बढ़ोतरी म बाधा करत हवस।”
”गुरुजी, गुर-जी वो काहे ऊंकर रासा-बासा, अलकरहा रिहिसे, हाड़-मूड बुता राहय।”
”अरे त कोन मार के कोलिहा-कुकुर नीते मरी मसान ये। उहू मन मनखेच तांय?”
गुरुजी सारिस- ”इसकूल मं तै सबले लईकदार विद्यार्थी रेहे। पेंटिंग, गीत-संगीत, अभिनय, अऊ मुखिया गिरी म कोनो तोर पार नई पावंय। फेर जिए के आघू बड़हे के रद्दा मं तैं तो नीचट सोरलो दिखत हवस सुखऊ राम। ये जतेक संगी-साथी है न जतेक मोहलो-मोहलो करके गुन गावत रथें…बिगड़े हालत में गोठियाना घला गरु समझहीं।”
सुखऊ ल अपन गलती दिखे धरिस। काम-कमई मं ऊंच-नीच के सपेटा तो परथेच, वोहा जानत रिहिस, फेर बड़े डिगरी के कमाल जादा मन भाय रिहिसे। अब जौन होवय-निपटहूं अइसे सोंच के मुड़ी निहार के गेपगेपाय कस सुनत राहय। गुरुजी, चबुलात पान ल पुरकिस, सीजन सुरकिस अऊ ठांसिस- ”अरे बाबू जतेक ये उात खादीधारी देखथस न, जेमन सबले बानी वाला, ऊंचहा चाल -चलन अऊ सब गोसइंया कहलाथें। देस, समाज, के सेवा अऊ तरक्की के चोनहा बगराथे, ईमान-धरम गुनगियान के ठेकादारी करथें… उही मन रात के अंधियारी म रुपिया के पाछू पगलाय रथें। आज के मानगुन, नीत-नियाव, मया-दया सब ”रुपिया” हे।”
”का किथस गुरुजी?” सुखऊ अकबका के पूछिस। ”सोला आना सिरतम कथों भई” गुरुजी अपन बात म अड़गे- ”ये जतेक ऊंचहा नेत-घात, दया-धरम, मनसे-मनसे म बराबरी ये सब किताब के गाहना-गुरिया आय। दूसर मन ला उम्हियाय बर काम आथे। जिए-खाय के, जिनगी बनाय के रद्दा मं इंकर पाछू धरही ते धारे-धार बोहाही… चतुरई अऊ छल फुसारी के जबाना हे जाने?”
बड़े भई कस पटेल गुरुजी के उल्था, थोरथार कन्हैया मानेजर के गोठ सन जुरे कस लागिस। वो तो केहे हावे- ”जब मन करही, चले आबे, पता लिखले…” सुखऊ गंठिया लीस, मन मं अब आ गेंव त कुछू हो जाय डिग्री डिप्लोमा ले के रहूं। कमइया बर काम के अंकाल नइये। ढेरहा, ओथराहा अऊ पंगपंगहा मन नउकरी बर लुलवाथे। जीयई के मतलब नउकरी नी होय-जिनगी बहुत ऊपर होथे…। पटेल गुरुजी ला कुछू सुरता आगे घड़ी देखिस अऊ रेंग दीस।
सुखऊ बकखाय, ओला देखथे रहिगे।

-किसान दीवान
बागबाहरा, महासमुन्द (छ.ग.)