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कविता

गोरसी

अघन पूस के जाड़ तन ल कंपाथे।
गोरसी के आंच ह तभे सुहाथे॥
हवा ह डोलय सुरूर-सुरूर।
पतई पाना कांपय फुरूर-फुरूर॥
रुस-रुस लागय पातर गुलाबी घाम।
जूड़ पानी छुए ले, कनकनावत हे चाम॥
लईका, सियान, जवान सबो मन भाथे।
गोरसी के आंच ह तभे सुहाथे॥
गरीब बर नइए बने ओढ़ना- बिछाना।
दांत किटकिटाये गा, नइए ठिकाना॥
छेना, भूंसा धरके, गोरसी ल धुक दे।
फूंकनी म थोरिक के फूंक दे॥
येखरे भरोसा सुग्घर नींद आथे।
गोरसी के आंच ह तभे सुहाथे॥
पताल भांटा येखर पलपला में उसन ले।
गरम-गरम चहा इही म बना लें।
रिसाय मयारू ल इही म मना ले॥॥
मिरचा अऊ नून म रोटी संग झड़ ले॥
डोकरा ह टेड़गी चोंगी, इही म सिपचाथे।
सुवाद जादा देथे, येखर रोटी अंगाकर।
ताकद अऊ टानिक हे ये म चुरे दार हर॥
कसेली के दूध येमा चुरके बड़ मिठाथे।
नहाय बर गरम पानी, इही म चघाथे॥
चंगुर जाए गोड़ हाथ, इही ह बचाथे।
गोरसी के आंच ह तभे सुहाथे॥
ये ह छिटका कुरिया बर हीटर आय,
गरम पानी बर जुन्ना गीजर आय॥
जुड़काला के ये ह एके सहारा आय।
गरीब मनखे के ये ह गुजारा आय॥
तईहा जमाना ले इही ह काम आथे।
गोरसी के आंच ह तभे सुहाथे॥
आनंद तिवारी पौराणिक
महासमुन्द

3 replies on “गोरसी”

बढिया लिखे हस ग आनंद भाई ! मैं हर नानकन रहेंव न तव मोर ममादाई हर न ” गोरसी ” म छेना के अँगरा म केरा-पान म मोर बर छोटकन अँगाकर रोटी बना दय, तेला मैं हर अथान के तेल म बोर के खावत रहेंव वो सेवाद हर आजो मोर मुँह म भरे हे ।

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