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कविता

घाम बइसाख-जेठ के : कबिता

बइरी हमला संसों हे, बीता भर पेट के।
खोई-खोई भुंज डरिस, घाम बइसाख जेठ के।
तिपत हे भुइंया, तिपत हे छानी।
तात-तात उसनत हे तरिया के पानी।
मजा हे भइया इहां सेठ के।
खोई-खोई….
रचना हे जांगर, खेत म ढेलवानी।
भुंजावत हे बइरी, कोंवर जिनगानी।
बेसुध हे जिनगी, सुरता न चेत के।
खोई-खोई….
चलत हे झांझ, जरत हे भोंभरा।
मन पंछी खोजत हे खोंदरा।
पोट-पोट लागे घाम देख के।
खोई-खोई….
नइए दऊलत दाऊ, गरीब काबर बनाएस।
नइए अन्न-धन दाऊ, पेट काबर बनाएस।
कइसे लुबो धान हसिया बिन बेंठ के।
खोई-खोई….
बनी-भूती म जिनगी सिरागे
बइरी भूख म मति सिरागे।
बनिहार होगेन घर न खेत के।
खोई-खोई….

डॉ. राघवेन्द्र कुमार ‘राज’
जेवरा सिरसा