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कविता

चरगोड़िया

भूख नई देखय जूठा भात,
प्यार (मया) नई देखय जात-कुजात॥
समय-समय के बात, समय हर देही वोला परही लेना
कभू दोहनी भर घी मिलही, कभू नई मिलही चना-फुटेना।
राजा अउ भिखारी सबला, इही समय हर नाच नचाथे,
राजमहल के रानी तक ला, थोपे बर पर जाही छेना॥
बेटी के बर बिहाव, टीका सगाई
मोलभाव, लेन-देन होवत हे भाई।
कइसे बिहाव करय बेटी के बाप,
येती बर कुंआ हे, वोती बर खाई॥
मां होगे मम्मी अउ बाप होगे डैड
लइका अंगरेजी के पीछू हे मैड।
भासा अउ संस्कृति के दुरगुन तो देख-
बोल भगत भइया, ये अच्छा या बैड॥
तू तू, मैं मैं होइस तौ, मंहगाई हर डर्रागे,
भ्रष्टाचार घलो के भइया, पोटा निचट सुखागे।
जादूगर मन के जन सेवा वाले ये जादू मा,
जनता होगे सुखी, देस मां राम राज अब आगे॥
रघुबीर अग्रवाल ‘पथिक’
उपप्राचार्य
21, शिक्षक नगर दुर्ग