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व्यंग्य

देसी के मजा

आजकाल जेला देखबे तेला खाये-पीये के, उठे-बईठे के, कपड़ा-लपता फेसन सबो मा विदेसी जिनिस के जाला मा अरझत जात हें। हमर देसी हा कोनो ला सुहावत नईहे, अउ बहिरी के मनहा हमर गुनगान करथें। आघू अउ कइसन बेरा कोनजनी समझ नी आय। एक घाव मोर मितान घर के छट्ठी नेवता अईस। मितान कल्लई असन करिस ता मेहा बिहनिया ले नेवता मा चल देंव, कतको बछर होगे रिहिस गे घलो नी रेहेंव। दू चार झन संघरा हमन बईठे रेहेन, जुन्ना गोठ-बात, सुख-दुख के होवत रिहिस। अवईय्या-जवईय्या मनखे मा परछी सईमो-सईमो करत रहाय, मितान वोतका मा आके कथे चलव सगा हो… भीतरी कुरिया मा बईठबो। 
हमन भीतरी कुरिया मा बईठेन तहाने हमर मन कर नासता पानी संग एक-एक गिलास मा मंद ला सबो के आघू मा मढ़ात गिन। रखते भार कुरिया मा अकबकासी लगिस मोला। सहान नी होय सकिस, मेहा तुरते कुरिया ले बाहिर निकलगेंव देसी दारू बने होथे कहात मोला जिद करत रिहिन। फेर मेहा कबीरहा मनसे, मोला अलकरहा लगिस… मितान ला बिन बताये कलेचुप घर आगेंव। दूसरईय्या दिन मितान मोर घर आके किथे कईसे मितान खाये-पीये घलो नही जी, अऊ बिन चेताय आगेस। कोनो हमर मनले गलती होगिस होही ते माफी करहु जी। मेहा केहेंव, अईसन कोनो बात नईहे मितान, मोला खवई-पीयई नी उचे ता मेहा आगेव तेहा काम बूता मा फसे रेहे तेकर सेती नी बता पायेव येमा कोनो नराजगी नईहे भाई। 
मितान ला मोर गोठ अब्बड़ भागे अऊ किहिस का करबे मितान मेहा नेवता नेवते ला जिहां जांव एके गोठ करें, खाय-पीये के बेवसथा रखे हस नीही जी नई रखबे ता नी आन ।  येकरे सेती मोला उदीम करना परिस मितान…अईसे ये गोठ ला गोठिया मत भई .. कोनो नराजगी नई हे जे होथे बने होथे….
वो बेरा ले मेहा सोंच मा परे रथों, जिहां देखबे देसी दारू दुकान बिहनिया-संझा अउ मंझनिया वोतका भीड़ दिखथे। दारू अउ  कुकरा दुकान में भीड़ घलो वोतका देखले। बिदेसी ले देसी कुकरा के भाव घलो उचहां कथें। ये हा चलो हमर देस के सान के बात कस लागथे,  देसी के हमरो भाव हा कतका उंच हावे। 
फेर इही देसी हा हमर देस के अरथ – बेवसथा मा अलग मायने घलो रखथे। सरकारी खजाना बढ़ाए मा इही देसी के बने हाथ होथे। तेकरे सेती देसी बर दया-मया के खबर सरकार हा लेवत रिथे। येकरे सेती होही देसी दारू दुकान के बोली सरकार डहान ले होय के सुरू हा कतका घर ला उजारत हे, कतका मन हा मारकाट होत हे ,देसी दारू के पियईय्या मन अपन पूरती बर चोरी-चमारी, लूट-पाट करत हें, येला सोंचे बर सरकारी आंखी हर मूंदाय रथे, येहा समझ ले बाहिर के बात हे। हमर गांव-घर मा देसी दारू बेचात हे, तीज-तीहार मा देसी दारू के शौक ले पीना गरब के बात होवत हे। ये देसी के मजा लेवैय्या मन बर कोनो नियम -कानून नईहे, येमन अपने-अपन मा नियम-कानून होथे, देसी ल पीले तहाने कोनो ऊपर कोनो अत्याचार करले , सब माफी हे, काबर वोहा जे करम देसी के नसा मा करत हे, वोहा अत्याचारी-सजा के भागीदारी नई होवय , येकरे सेती सबो मनखे मन अपन भड़ास निकाले बर ये देसी दारू पीये बर आघू आवत हें, अऊ अपन मन-मरजी ला पूरा करत हें, येकर ले सोझहे रद्दा अऊ दूसर कोनो नी हो सके। तेकरे सेती ये देसी मा अपन मजा सबे लेवत हें आन भले खोवावय फेर सान झन बेचावय।




दीनदयाल साहू