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गज़ल

छत्तीसगढ़ी गजल

काकर नाँव लिखत रहिथस तैं
नँदिया तिर के कुधरी मा।
राखे हावस पोस के काला
तैंहर मन के भितरी मा।

डहर रेंगइया ओकर कोती
कभू लहुट के नई देखै,
लटके रहिथे चपके तारा
जे कपाट के सकरी मा।

नाली कतको उफना जावै
नँदिया कब्भू बनै नहीं,
नहर बने नइ चाहे कतको
पानी उलदौ डबरी मा।

बादर तोपे हे अँजोर ला
घाम म बरसत हे पानी,
निहुरे-निहुरे सूरुज रेंगै
मूड़ लुकाए खुमरी मा।

मनखे देंह घलो के संगी
होथे जुन्ना ओनहा कस,
थिगरा उप्पर थिगरा जइसे
चिरहा-फटहा कथरी मा।

फुटहा दोना कस हो गेहे
सबो योजना सासन के,
जइसे दार बोहावए ‘कौशल’
छेदा वाले पतरी मा ।

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<><><>मुकुन्द कौशल<><><><

One reply on “छत्तीसगढ़ी गजल”

लोहा के बेड़ी हर टूटगे
अंगरेजी परसासन मा
फेर अपनेच सासन मा जकड़े हन
निमगा फोसवा सुतरी मा

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