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समीच्‍छा हिन्‍दी

छत्तीसगढ़ी गज़ल के कुशल शिल्पी: मुकुन्द कौशल

डॉ. . दादूलाल जोशी ‘फरहद’

जब भी गज़ल विधा पर चर्चा होती है , तब कतिपय समीक्षकों का यह मत सामने आता है कि गज़लें तो केवल अरबी , फारसी या उर्दू में ही कही जा सकती है। अन्य भाषा ओं में रचित गज़लें अधिक प्रभावी नहीं हो सकती । शायद इसीलिए अन्य भाषा ओं और खासकर हिन्दी में कही गई गज़लें सहजता से स्वीकार नहीं की गई। चाहे वह दुश्यन्त कुमार हो या कुँवर बेचैन , रामदरश मिश्र या फिर चन्र्ससेन विराट , सभी को सहमति – असहमति के झंझावातों से गुजरना पड़ा। सभ्यता , संस्कृति और भाषा समाज केfन्र्गत होती हैं। इनके सृजेता तो मानव समाज ही है। जिस समाज या जाति की सभ्यता ,संस्कृति और उनके विचार जितने अघिक उदात्त और श्रेष्ठ् होंगे , उनकी भाषा भी उतनी ही सक्षम और सशक्त होगी । अब इसे पूरा विश्व स्वीकारता है कि हिन्दी भाषा अत्यन्त सशक्त है और उसमें किसी भी तरह के विचार और भाव को सार्थक सम्रेताशणीयता के साथ प्रकट करने की क्षमता है। यही करण है कि अब हिन्दी में कही गई गज़लों को पूरी मान्यता मिल रही है। विधाएँ किसी भी परिवेश या भाषा की हो , हिन्दी में उनका प्रयोग सटीकता के साथ हुई है। अंग्रेजी की सानेट-विधा पर कवि त्रिलोचन ने हिन्दी में काफी सानेट लिखा है। जापान की विधा हाईकू का अब बहुतायत प्रयोग हिन्दी में होने लगा है। उर्दू की रूबाईंयाँ हिन्दी में लिखी गई तो वह बहुत लोकप्रिय हुई ,जिनमें डॉ. . हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला विशेष उल्लेखनीय है।

हिन्दी में गज़ल लिखने की परम्परा काफी पुरानी हो चुकी है। यह सुखद प्रसंग है कि अब छत्तीसगढ़ी में भी गज़ल की रचना की जाने लगी है। छत्तीसगढ़ी के अनेक कवियों ने सुन्दर और सशक्त गज़लें लिखी हैं किन्तु शिद्दत के साथ और बड़े स्तर पर छत्तीसगढ़ी भाषा में गज़ल लिखने का श्रेय कवि मुकुन्द कौशल को जाता है। उनकी गज़लों का एक संग्रह बहुत पहले प्रकाशित हो चुका हैं। दूसरा संग्रह सद्यः प्रकाशित ‘‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’’ है। इस संग्रह में उनकी चौवन गज़लें संग्रहित हैं। इस कृति का यथेश्ट स्वागत हुआ है तथा इस पर पाठकों और लेखकों की समीक्षाएँ एवं टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिली है। प्रायः सब में प्रशंसा के पुल बाँधे गये हैं। प्रशंसा का ग्राही और आकांक्षी सभी होते हैं। तारीफ के शब्दों से सबको खुशी होती है। आलोचना से दुख पहुँचता है। जब कोई कृति, पुस्तकाकार छप कर सुधी पाठकों के हाथों में पहुँच जाती है, तब समाज निर्णायक की भूमिका में सन्नद्ध हो जाता है। उसकी अच्छाई या बुराई का निर्णय समाज ही करता है। लेकिन यह तथ्य भी विशेष ध्यातव्य है कि अतिशय प्रशंसा और अतिरिक्त निन्दा के बीच एक अन्य कार्य भी होता है ,जिसे नीर क्षीर विवेक आधारित समालोचना कहते हैं । इस तरह की समालोचना से कृति , कृतिकार और समाज तीनों का भला होता है।

छत्तीसगढ़ी गज़लगो मुकुन्द कौशल की कृति ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा ‘ का मूल्यांकन प्रारम्भ करते हैं, तब हमारा ध्यान सर्वप्रथम शीर्शक पर जाता है। उन्होनें अपनी गज़लों को परेवा अर्थात कबूतर का प्रतीक दिया है। यह सर्व विदित है कि प्राचीन काल में कबूतर से संदेश वाहक का काम लिया जाता था। कबूतर चिट्ठी-पत्री लाने ले जाने का दायित्व निभाता था। यहाँ कौशल जी का आशय है – ‘ गज़ल रूपी कबूतर उनके हृदय के भावों और विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उन्मुक्त उड़ान भर रहा है। कवि की यह परिकल्पना सुधी पाठकों के मन को भाती है –

कौसल के संदेस लिखाए मया दया के पाती ला ,
मोर गज़ल के उड़त परेवा गाँव गली अमरावत हे।

गज़ल का सृजन करते वक्त इसके शिल्प और रूप (फार्म) का विशेष ध्यान रखा जाता है। उर्दू गज़लों के निर्धारित मानदण्डों का पूरा-पूरा अनुपालन भले ही न किया जा सके किन्तु उसके पारम्परिक शिल्प और रूप (फार्म) का अनुपालन अनिवार्य होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनके बिना गज़ल , गज़ल हो ही नहीं सकती । कौशल जी ने उसका बखूबी निर्वाह किया है और इसमें वे सफल हैं । इस दृष्टि से उनका यह प्रयास निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। संग्रह की गज़लों के अध्ययन से पता चलता है कि उन्होंनें इसके लिए काफी परिश्रम किया है-

‘गज़ब पछीना गार गज़ल के खेत पलोए हे कौसल’
शिल्प और रूप का सुन्दर प्रयोग प्रस्तुत गज़ल में बखूबी हुआ है –
जे आरूग अंटियावै तेला , अंटियावन दे छोड़ बुजा ला।
बिन मतलब मेछरावै तेला , मेछरावन दे छोड़ बुजा ला।।
जागौ – जागौ कहिके मै हर ,काकर काकर करौं पैलगी,
सुते राहा तनिया के मोला खिसियावन दे छोड़ बुजा ला।।
कहे सुने के मजा तभे हे जब सकेल के कहिबे कौशल,
बिन मतलब फरियावै तेला फरियावन दे छोड़ बुजा ला।।

छत्तीसगढ़ी भाषा में काफी संख्या में ऐसे शब्द समूह हैं, जो आम बोल चाल में ‘ठेही’ की तरह इस्तेमाल होता है, जैसे – अलकरहा हे, करलई हे , भाग भईगे , जान दे , जउंहर होगे , हला-हला के ,पूछ तो रे , जय हरि ,इत्यादि। इन शब्दों का प्रयोग छत्तीसगढ़ी गज़ल लिखने में किया जाता है तो शेर अत्यन्त प्रभावी बन जाते हैं। मुकुन्द कौशल ने ‘छोड़ बुजा ला ‘ शब्द समूह का प्रयोग करके इस गज़ल में छत्तीसगढ़ी रंग और रस भर दिया है। इसी तरह ‘जै भगवान’ शब्द की ठेही लेकर रचित उनकी निम्नांकित गज़ल कीबानगी अत्यन्त रोचक एवं प्रभावी बन पड़ी है-

एक घांव उन तुँहर पाँव ला परिन तहां ले जै भगवान ।
उचक उचक के पांच बछर ले छरिन तहां ले जै भगवान।।
काए फिकर हे, का चिन्ता हे , जनता भलुन पियास मरै,
सबले आगू अपन बगौना , भरिन तहां ले जै भगवान ।।

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान देश के महान नेताओं ने निश्ठा , नैतिकता और ईमानदारी को अपना जीवनादर्श बनाकर जनसेवा और राश्ट्र के लिए सर्वस्व त्याग करने की जो मिशालें गढ़ी थी, वो सब आजादी मिलने के बाद तहस-नहस होती चली गईं। वर्तमान में राजनीति जनसेवा का नहीं बल्कि मेवा खाने और मौज़ उड़ाने का माध्यम बन गई है। राजनीतिक गलियारे में सर्वत्र भ्रश्ट्राचार की धूम और विद्रूप चेहरों की भरमार है। इन्हीं विसंगतियों को यह शेर बहुत तल्खी के साथ बयान करता है –

कांदी हर तो एक्के हावय ,खूंटा सबके अलग अलग ,
एक छोड़ के दूसर खूंटा , धरिन तहां ले जै भगवान।।

मुकुन्द कौशल छत्तीसगढ़ी शब्दों के पारखी हैं। शब्द संयोंजन में कुशल हैं। इसीलिए उनके शेरों में ध्वन्यात्मकता और र वानी देखते ही बनती है । प्रस्तुत पंक्तियाँ दृष्ट्व्य है-

पारा पारा झगरा माते ,का सुमता के बात करौं,
गली गली मा ताल ठोकइया चारों कती अखाड़ा हे।।
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बात बात मा आनी बानी बात बगरगे पारा भर ,
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गजब पछीना गार गजल के ……………………….
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भीतर भीतर पझरै पीरा आंखी सुक्खा नदिया हे ।
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धरे कलारी कातिक रेंगिस,धान ओसावत आगे अगहन ।
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सूपा धरे बिहनिया आके , किरनन ला छरियावत हे।

इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार के कई रूप देखने को मिलते हैं। इनकी विशेष ता है कि ये जुबान पर तुरंत चढ़ जाते हैं किन्तु इस तरह के प्रयोग में कहीं कहीं कौशल के भीतर का गीतकार दखल देता हुआ प्रतीत होता है, फलस्वरूप शेरों के अनेक अद्धाली , गीतों के छंद की तरह आस्वाद देते हैं। जैसे –

तैं हिरदय के दीया बार ,
( मन हो जाही जगर मगर)
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कईसे बिसरै वो दिन बादर ,
( सुरता आथे रहि रहि के )
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मन के डोली मा तोरे बर,
जागे हावै मया दया
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सूवा रे झन कहिबे पीरा
( कठुवा जाही उन्कर तन-मन)
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तोर सुरता मने मन म साने रहेंव
मै मनौती घलो तोर माने रहेंव
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साध संवरे लगिस
मन ह मउरे लगिस
काल ह आज आंखी म तंउरे लगिस ।।
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अल्लर परगे मन के बिरवा ,हांसी तक अइलावत हे।

मुकुन्द कौशल के इस संग्रह की गज़लों में कथ्य और रस की विविधता है। एक तरफ श्रृंगार , सौन्दर्य और माधुर्य है तो दूसरी तरफ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों के दंश की पीड़ा है। जन-जन में प्रचलित पारम्परिक दर्शन की अभिव्यक्ति भी यत्र तत्र शेरों में हुई है। जब कौशल श्रृंगार को लेकर गजल लिखते हैं, तब सौन्दर्य और माधुर्य पूरे शवाब पर होते हैं । इन्हें रूमानी गज़ल भी कह सकते हैं । इन गज़लों के शेर शिल्प कथ्य और भाव की दृष्टि से बेहतरीन हैं। इनमें श्रृंगार रस की उद्दाम पयस्विनी अनायास प्रवाहित हुई है। शेर दृष्टूव्य है –

राहेर कस लचकत कनिहा, रेंगत हावस हिरनी कस,

देंह भला अइसन अलकरहा , लचक कहां ले पाये हे।।

यहाँ ‘‘राहेर कस लचकत कनिहा ‘‘ अनुपम श्रृंगारिक सौन्दर्य की सृश्टि करता है। अतिशय
तन्वंगी की क्षीण कटि का बलखाना ,फलियों की भार से झुलता हुआ अरहर के पौधे के
समान है। यह उपमा सर्वथा नवीन हैं। इससे छत्तीसगढ़ की कृशि संस्कृति का साक्षात्कार होता है।इसी क्रम का अगला शेर भी श्रृंगार का बढ़िया नमूना है-

देंह ला वोहर घेरी बेरी , अंचरा ले तोपत रहिथे ,
अंचरा भीतर जाना मानो , चंदा सुरूज लुकाए हवै।।

किसी युवती के कंधे से आँचल का सरक जाना और उसे तत्परता से पुनः कंधे पर स्थापित करना ,यह कार्य व्यापार श्रृंगार रस की उत्पत्ति करता है किन्तु जब कौसल यह कह देता है:- ‘‘ जानो मानों चंदा सुरूज लुकाए हवै’’ तब श्रृंगार रस का स्त्रोत प्रबल वेगवान हो जाता है।

गज़लगो कौसल की पैनी दृष्टि और गहन अनुभूतियाँ विलक्षण है। निम्नांकित शेर से यह बात सिद्ध हो जाती है –

जब ले तैं हर मूड़ मींज के ,हांसत कूदत निकरे हस ,
तबले बदरी खोपा छोरे , केस अपन छरियाए हवै।।

इस शेर में मुकुन्द कौशल ने छत्तीसगढ़ी के जिस विशिश्ट शब्द समूह को संजोया है, वह है:- ‘‘मूड़़ मींज के’’। मूड़ मींजना सहज क्रिया है किन्तु छत्तीसगढ़ी संस्कृति में इसकी लाक्षणिकता एक खास अवसर को द्योतित करती है। कवि लिखता है ‘जब ले तैं मूड़ मींज के ‘ अर्थात जब से तू रजस्वला हुई है, माने जवान हुई है। रजस्वला युवती के हाव भाव को पकड़ना और उनके सौन्दर्य बोध को सहजता से प्रस्तुत करना कौशल जी का अद्भुत कौशल है। इस शेर में ‘बदरी खोपा छोरे ‘ का रूपक सुन्दर बन पड़ा है। संग्रह में श्रृंगार परक गज़लों की संख्या कम है , परन्तु जितनी भी है ,सभी रसोद्रेग में सफल हैं।

‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ की अनेक गज़लों में कौशल ने देश और समाज की मौजूदां हालातों को कथ्य और विशयवस्तु के रूप में पिरोया है। उन्होंने सम सामयिक संदर्भाें को बड़ी बेबाकी और कहीं कहीं तल्खी के साथ अभिव्यक्ति दी है। देश की वर्तमान प्रजातांंत्रिक राजनीति के स्वरूप , निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के चरित्र , जनता के तथाकथित सेवक कहे जाने वाले नौकरशाहों की क्रियाविधि , शासन – प्रशासन में काबिज़ प्रभावशाली व्यक्तियों की कथनी और करनी के बढ़ते अन्तर तथा इन्हीं के चलते पल-पल कश्ट और दुख झेलती जनता की पीड़ा को कवि मुकुन्द कौसल ने बहुत गहराई के साथ महशूश किया है –

बने पलो के जे नेता मन , खेती करहीं वोट के ,
ललहुं पिंवरा नोट जागही उन्कर खेती खार मा ।।

जाहिर है , टूटी चप्पल पहन कर चलने वाला व्यक्ति जब राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनता है या चुनाव जीतकर विधायक या सांसद बन जाता है , तब पाँच साल के भीतर वह अकूत संपत्ति का मालिक बन जाता है। आखिर ऐसा चमत्कार कैसे हो जाता है?

ये कइसन सरकार हवै ,का अइसन ला सरकार कथें ?
हमरे बिजली बेच के हमला राखत हे अंधियार मा।।
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साहेब बाबू , नेता जुरमिल , नाली पुलिया तक खा डारिन ,
गरूवा मन बर काहीं नइये , मनखे सब्बो चारा चरगे।।
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बड़का नेता मन कहिथें , हम अंजोर घर-घर पहुँचाबों ,
काए करन कुरसी मा बइठे , बाबू ,साहेब मानत नइयें।।
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साहब ला देंवता चघथे , त हूम दिये बिन नई उतरै,
हूम घलो के मांहगी चाही , पातर-पनियर चलै नहीं ।।

सरकार की दोहरी नीति , नौकरशाहों की मनमानी ,और रिश्वतखोरी का कोढ़ इत्यादि की दारूण व्यथा-कथा उपर्युक्त शेरों में मुखर हुई हैं। कौसल जी ने कहते-कहते एक बड़ी बात कह दी है। एक ऐसी सच्चाई की ओर इशारा किया है , जिस पर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया है –

एक्कड़ डिसमिल के मतलब ला ,बसुंधरा मन का समझै ,
का जाने डेरा वाला मन , का रकबा खसरा होथे ।।

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सर्वाधिक परेशानियों का सामना यहाँ की आदिकाल से निवासरत खानाबदोश किस्म की जातियाँ कर रहीं हैं , जिनमें देवार जाति प्रमुख है। सरकार ने देवारों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में रखा है। उनका जाति प्रमाण पत्र इसलिए नहीं बन पा रहा है क्योंकि उनके पास पचास सालाना खसरा नहीं है। उनके पास तो कभी जमीन थी ही नहीं । सदियों से डेरा डाल कर जीवन यापन करते आए हैं। फलस्वरूप उन्हें अनुसूचित जातियों को मिलने वाली सुविधाएँ नहीं मिल पा रही है। ऐसी जातियों के जाति प्रमाण पत्र बनवाने की किसी तरह की वैकल्पिक व्यवस्था छत्तीसगढ़ सरकार ने नहीं की है। मुकुन्द कौसल ने सर्वथा नई बात की ओर संकेत किया है,इसके लिए वे बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं।

यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि यहाँ के कर्मठ धरती पुत्रों ने पृथक प्रांत और खुशहाल छत्तीसगढ़ का पावन सपना देखा था। रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने छत्तीसगढ़ महतारी की अस्मिता और स्वाभिमान का अलख जगाया था । छत्तीसगढ़ राज्य बन गया । सरकारें आनी जानी शुरू हुई । एक दसक बीत गया । मूल छत्तीसगढ़िया आज भी अपने सपनों को छत्तीसगढ़ के गाँव गली में ढूंढ रहा है। देख रहा है औचक भौंचक । शायद इसी की बानगी है ,यह शेर –

सुने रहें हन , छत्तीसगढ़ मा, सुरूज नवां उवइया हे ,
खोजौ वो सपना के सुरूज, कोन दिसा मा अटक गईस।।

यह शेर चिन्तन – मनन करने का आग्रह करता है। प्रस्तुत संग्रह में कुछ शेर निश्चित रूप से शाश्वत भावों वाले ,उम्दा और आला दर्जे के हैं , जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं –

जे हर बोले सकै नहीं ते , आगी ला पोसे रहिथे,
बाहिर निच्चट जूड़ जनाथे, भीतर ले अंगरा होथे।।
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चारों मुड़ा ले खुद ला तैं रूंधे हावस,
तहीं बता अब कोन डहर ले मैं हर आवौं।।
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मैं दंग – दंग ले बरहूं जे दिन ,
ओ दिन तैं पतियाबे मोला ।।
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तुम जिन्कर किरपा ले संगी , सफल भये हौ जिनगी मा ,
वो मन के सन्मान करौ, अउ उंकर पांव पखारौ जी ।।
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झन खेदौ येती ओती , कोनो ला बिचकावौ झन ,
चाहत का हौ , भटके गइया ,कभू अपन घर जावै झन ?
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हम्मन भइगे पुरखा मन के , जस ला चगलत बइठे हन ,
हम सब जिन के जीभे चलथे , जांगर उंगर चलै नहीं ।।
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एक्को जिन त होतिस जेहर बांचे रहितिस ,
सब माते हें , कोन कोन ला हूंत करावौं।।

इस संग्रह की गज़लों में कवि की निर्भयता , साफगोई और जनपक्षधरता साफ-साफ झलकती है जोकि श्लाघनीय है। ऐसा करके उन्होंने जहाँ एक ओर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का ईमानदारी पूर्वक निर्वाह किया है, वहीं दूसरी ओर श्रेष्ठ् और महनीय कवित्व धर्म को निभाया है। इस तरह वे एक सिद्ध गजलगो के रूप में अपना वरीय स्थान बनाने में सफल हुए हैं। बावजूद इन सबके उनकी गज़लों के अनेक शेर उनके द्वारा हड़बड़ी और जल्दबाजी में लिखने की प्रवृत्ति की ओर इंगित करते हैं क्योंकि उनके अनेक शेरों में शब्दों के अपारम्परिक और असंगत प्रयोग के दर्शन होते हैं, जैसे –

डबकत आंसू ले कब्भू तो तैंहर ,हाथ अंचो के देख,
दुनिया खातिर होम करत तैं ,अपनों हाथ जरो के देख।।

यहाँ आंसू का खौलना और उससे हाथ धोना , अजीबो गरीब प्रयोग है। दूसरी पंक्ति में होम करते हुए हाथ जलाने की बात करना , मुहावरे के वास्तविक अर्थ को पलटने जैसा है। इसी तरह यह शेर भी विरोधाभाशी अर्था वाला है –

बर पीपर अउ करगा कांदी , मानै चाहे झन मानै,
दुरिहा दुरिहा तक बगरे हे मोर महक मैं जानत हौं ।।

वट , पीपल , घांस पात और विजातीय धान के पौधे से खुशबू का सम्बन्ध बनाना विचित्र खयाल है।

‘ झन करबे तैं कभू भरोसा ,बइहा भूतहा नेता के ‘

इस पंक्ति में नेताओं के लिए बइहा भूतहा शब्द की लाक्षणिकता सटीक नहीं बैठती क्योंकि नेता धूर्त और कुटिल होता है।

क्रौंच मरत देखे ले कइसे बालमीकि हर कवि होगै,
जिहां पुजावै कुकरा वो लंग , कोन कवि बन पाये हे।।

इस शेर को पढ़कर यह कहना पड़ता है कि कौसल जी को क्रौञच बध प्रसंग की वास्तविक जानकारी नहीं है। इसीलिए मुर्गा का उदाहरण देकर उसका सतहीकरण कर दिया है जोकि असंगत उल्लेख है। आदि कवि बाल्मीकि के प्रथम श्लोक के भावार्थ को गहराई के साथ समझने और अनुभव करने की जरूरत है –

मा निशाद ! त्वं गमः शाश्वती समः।
यत्रौंीकच मिथुनादेकमवधी काम मोहितम्।।

इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचित दार्शनिक भावों वाले प्रायः सभी शेर बासी और उबाऊ लगते हैं क्योंकि वे सब सैंकड़ो बार पढ़े और सुने जा चुके हैं। केवल उनका छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर देने से वे सब रोचक और ग्राह्य नहीं हो सकते । कुछ उदाहरण प्रस्तुत है –

जे घर भीतर सुमता होथे , लक्षमी घलो उन्हें आथे ।
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— 7 —

काया के का गरब करत हस ,जब तक चलै चला ले,
एक्केदारी घुर जाही ये काया हवै बतासा ।।
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वइसे रोज रमायन गीता बांचत हावौं।
तभो अढ़ाई आखर ला समझे नई पावौं।।
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आज नही ते काली करबे ।
तैं ये घर ला खाली करबे ।।
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कासी मथुरा कहाँ किंजरबे ,
तोर कठौती मा गंगा।।

इसी बात को संत रविदास जी ने कहा है – ‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा ‘‘। लगता है कौसल जी को यही नही मालूम कि कठौती किस बर्तन का नाम है और यह विशेष रूप से किस काम में आता है? काठ का बना यह बर्तन सभी के घर में नहीं होता है।
बहरहाल ! कुछ कमियों के कारण ही मुकुन्द कौसल की सलामी गज़लगोई को खारीज नहीं किया जा सकता । कौसल जी इनसे भी बेहतरीन गज़ल लिख सकते हैं , इसमें थोड़ा भी शक-ओ -सुबहा नहीं है। उम्मीद ही नहीं यकीन है , आगामी समय में कौसल जी के शेरों में बढ़िया बांकपन, उक्ति वैचित्र्य ,अन्योक्ति और एकदम ताजापन देखने -पढ़ने को मिलेगा। आखिर में उनका ही एक शेर लिखकर अपनी बात समाप्त करता हूँ –
अपन समे मा कतको रचना , अच्छा लिखिन लिखइया मन ,
कौशल असन घलो ए जुग मा गीत अउ गज़ल लिखइया हे।।
साधुवाद! साधुवाद !!

डॉ. . दादूलाल जोशी ‘फरहद’
ग्राम – फरहद, पोस्ट – सोमनी
तह $ जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.)
मोबा – 9406138825 /9691053533

6 replies on “छत्तीसगढ़ी गज़ल के कुशल शिल्पी: मुकुन्द कौशल”

Joshi ji, aapki paini dristi, parhne ki lagan, samiksha ki shali ne prabhawit kiya. Sadhuwad.

लईकापन म खेलौना खेले,जवानी म करे मतंगी|
बुढ़ापा म भजन कर ले,राम ल बनाले संगी

wah josi ji sthapit kavi kousalji ke rachana prkriya ke sughghar samiksha karke un la sukshma truti le avgat karake hamaro man ke gyan barhay hau. yekar bar aap la au mukund jila badhi ihi bahana chhatisgarhi sahitya ke nar la chachalat jat he …9617777514

me abhi baith kar mukund koushal ji ki gajlo par lekh likhne ka soch hi rahi thi ki gurtur goth me aapka lekh padha or ab kush likhna baki hi nahi raha aapka lekh etna spasht or vistrit hai ki kya kahu .dhanywad aapke lekh ke liye

dhanyawad bahini ! jatana mai ha likhe honw wokar le au bariha likhe ja sakat he.
sambhawana anant rahithe ! aap man ghalo likhaw nawa bat samne aahi!
Dr. dadoolal joshi samoadak * vichar vinyas* traimasik dt.10/6/2014

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