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कविता

छत्तीसगढ़ी

हमर बोली छत्तीसगढ़ी
जइसे सोन्ना चांदी के मिंझरा , सुघ्घर लरी ।
गोठ कतेक गुरतुर हे
ये ला जानथें परदेसी ।
ये बोली कस , बोली नइये –
मान गे हें बिदेसी ॥
गोठियाय म , त लागथेच –
सुने म घला सुहाथे , देवरिहा फुलझरी ॥
मया पलपला जथे
सुन के ये दे बोली ।
अघा जथे जी हा –
भर जथे दिल के झोली ॥
मन हरिया जथे धान बरोबर –
जइसे , पा के सावन के झड़ी ।
अऊ बोली मन डारा खांधा –
छत्तीसगढ़ी , रूख के फुनगी ।
सवाद मार ले गोठिया ले –
चार दिन के जिनगी ॥
कोचई पान पीठी के बफौरी –
जइसे , रसहा रखिया बरी ।
हमर बोली छत्तीसगढ़ी
जइसे सोन्ना चांदी के मिंझरा , सुघ्घर लरी ||
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गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा

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