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कविता

जाड़ के घाम

सुरूर-सुरूर हवा चलय, कांपय हाड़ चाम।
अब्बड़ सुहाथे संगी, जाड़ के घाम॥
गोरसी के आगी ह रतिहा के हे संगी।
ओढ़ना-जठना, गरीबहा बर तंगी॥
भुर्री अउ अंगेठा, अब सपना होगे भाई।
लकड़ी अउ छेना बर, नई पुरय कमई॥
गरीबहा बर बदे हे, बिपत के नाम।
अब्बड सुहाथे संगी, जाड़ के घाम॥
अंगाकर रोटी ल, चटनी के संग खाले।
लाली चहा ल पी ले, गोठिया बता ले॥
पिड़हा म बइठ, अंगना म थोरिक।
घाम ह लागय, रुस-रुस बड़ नीक॥
कुरिया अउ घर म नइए गा आराम।
अब्बड़ सुहाथे संगी, जाड़ के घाम॥
जमो सुख ल रपोटिन, रोंठहा मन अपन बर।
भूख अउ पियास ल छोड़िन, हमर बर॥
अकास के सुरुज देवता, छाहित हे सबो बर।
कोनो दुवा भेदी नइए, किरपा हे जमो बर॥
दुनिया ल अंजोरत हे, नइ मांगय कोनो दाम।
अब्बड़ सुहाथे संगी, जाड़ के घाम॥
आनंद तिवारी पौराणिक
श्रीराम टाकीज मार्ग
महासमुन्द