Categories
कविता

जाड़ मा हाथ पांव चरका फाटथे

सुर सुर सुर पुरवईया चले, रूख राई हालत हे।
पूस के महीना कथरी, कमरा काम नई आवते॥
सुटुर-सुटुर हवा मा पुटुर-पुटुर पोटा कांपत हे।
पानी ला देख के जर जुड़हा ह भागत हे॥
ब्यारा मा दौंरी बेलन के आवाज ह सुनावत हे।
गोरसी भूर्री के मजा मनखे जम्मो उठावत हे॥
खाय-पिये के कमी नईए लोटा-लोटा चाय ढरकावत हे।
हरियर साग-भाजी ल मन भर झड़कावत हे॥
पताल के फतका धनिया संग मजा आवत हे।
मेथी के फोरन मा सब्जी अब्बड़ ममहावत हे।
स्वास दमा में खांस-खांस के बिमरहा अकबकावत हे।
सरसों तेल ल हांथ-पांव मा उत्ता धुर्रा लगावत हे॥
गरीब ल कोन कहे अमीर घलो जाड़ मा कांपत हे।
जाड़ के महीना मा हांथ-पांव चरका फाटत हे॥

बाबूलाल गेंडरे
छेड़िया (खरोरा)