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व्यंग्य

झन-झपा

ओ दिन मैं हा अपन जम्मो देवता-धामी मन ला सुमरत-सुमरत, कांपत-कुपांत फटफटी ला चलात जात रहेंव। कइसे नई कांपिहौं? आजकाल सड़क म जऊन किसीम ले मोटर-गाड़ी चलत हावय, ओला देख-देख के पलई कांपे लागथे। आज कोन जनी, कोन दिन, कोन करा, कतका बेरा, रोडे ऊपर सरगबासी हो जाबो तेकर कोनो ठिकाना नई हे। आज लोगन मन करा, मोटर बिसाय के ताकत तो हो गे हे। फेर ओला ठाढ़ करे के ठऊर नई हे, ऊंखर मेर। त ओ मन सरकारी रोड अऊ गली मन ला अपन ‘बूढ़ी दाई’ के मिल्कियत समझ के, के कोन जनी ससुरारी जघा समझ के उही करा अपन गाड़ी ला ठाढ़ कर देथें। तहां ऊंखर मारे टे्रफिक के ठाढ़ हो जाथे।
ओ अप्पत मन के अकल मुंडई ल देख के काहीं कहि पारबे त ओरझटाही करे बर धर लेथें।
आजकाल हमर नान-नान मेचका-रेचका नोनी-बाबू मन के हाथ मा घलो जबड़-जबड़ फटफटी धराय रथे। ओमन आंखी म तस्मा खाप के, खांध मा बेग ओरमा के, खांध अऊ गाल के बीच मा मोबाईल ल डटा के कहूं फटफटी के हेन्डिल ला धरे रइहीं त झन पूछ। टें ऽऽऽ टें-टें ऽऽऽ टें ऽऽऽ ऊंकर हार्न हर मुनादी करत जाथे-‘हट जाव-हट जाव-हट जाव-शहंशाहे मुगले-आजम के शहजादे तशरीफ ला रहे हैं। टें-टें-टेंऽऽ।’
अइसने मुनादी करत-करत, कोनों डेरी कोती ले सर्र ले निकल जाथें त कोनों जेवनी कोती ले फर्र ले नाहक जाथे। ये सर्रऽऽ फर्रऽऽ ला देख-देख के हमर पोटा कांपत रथे।
त ओ दिन मैं हा जब देंवता, धामी मन ला सुमरत-सुमरत जावत रेहेंव त एक ठिक फटफटी के पाछू डहन मोर नजर परगे। ओमा नम्बर के जघा मा लिखाय रहय ”झन झपा”। में सोचेंव का बात है? कहूं ये दुनिया के मनखे अइसने समझदार हो जावयं त ये संसार सुधर जावय। फेर कहां पाछू? ओ बपरा फटफटी वाले हर बने अपन गाड़ी म लिखवाय हे ”झन झपा” अऊ मोर देखते-देखत एक झिक चिरपोटी मुहुं के टुरा हर, एक्टीवा मा बइठ के अईस अऊ मोर ‘एक्टिव’ होय के पहिली उही ‘झन झपा’ वाले गाड़ी म जा के झपा गे।
हमर महान देस के इही महान संस्कार ये। जेन ला करे बर बरजे जाथे, मना करे जाथे, उहीच ला करे बर हमन जादा उतियईल हो जाथन कोनो जघा ‘यहां थूकना मना है’ लिखाय रही त हम उहीच करा जरूर थूकबो। भले थोरिक करबो, फेर करबो अऊ हम अइसन नई करत हन, त हमला छोटेपन के बोध होय लगथे। हमर अर्न्तआत्मा हर, हमर स्वाभिमान हर हमला धिक्कारे लगथे-‘तोर हिन्दुस्तानी होय म तोला धिक्कार हे रे डरपोकना! त अन्तरात्मा के अवाज ल सुन के कायदा-कान्हून ला घलो टोरे बर परथे। वइसे अब्बड़ मजा आथे घलो ये काम म। रमायेन, भागवत, बिहाव करत हावव, त छाती तान के, खम्भा के बिजली तार मा अकोड़ा लगा लव। जे जघा ‘थूंकना मना है’ लिखाय रहिथे, पचरक ले थूंक दव। ‘कचरा फेंकना मना है’ लिखाय हे, त ओ करा झउंहा-भर कचरा ला फेंक दव। अलगे सुख हे ये सब के दाद-खाज खोजियाय मा, टूरी फंसाय मा, फोकट के खाय मा, ससुर के घर जाय मा, ओ सुख नई हे जऊन सुख कान्हून टोरे मा हावय।
त जे काम ल नई करे बर बरजे जाथे ओला अवस के करो। कस के करो। अऊ जे बूता ला करे बर कहे जाथे ओला करबे झन करव। करव, त रोआ के करव, नचा के करव, अबेरहा करव, कुबेरहा करव। देखिहव, कतका मजा आही।
त ‘झन झपा’ कहत हे तब जरूर झपाना हमर परम्परा आय। अऊ परम्परा निभाना हमर फरज आय। हां! पिछड़ापन वाले नानमुन परम्परा कोती धियान देना जरूरी नो हे। जइसे-दाई ददा के सेवा, गुरू के इज्जत, पहुना के सत्कार, संस्कृति के रक्षा, बचन ल निभाना, समय के पाबंदी- ये सब दकियानुसी परम्परा आय। येकर जतके जल्दी करव, ओतके बड़का कहाहू। अऊ ये सब ल करे बर आत्मा हर कनुवाथे घलो। त आत्मा के बात ला मानव। काबर? आत्मा पवित्र होथे।
जइसे मुसुवा हर सइघो पिंजरा ल देख के घलो ओमा झपा जाथे उही हाल मरद-जात के होथे। मोर भांटों हर मोला एक जघा ले गीस, अऊ ढपेल के घर मा खुसेर दीस। ओ घर के, बइठक के एक ठिक खुरसी मा मोला अइसे बइठार दीस, जानो मानो मोला बिजली के झटका देवइया हे। झटका लगी गे। एक झिक गजब के खबसूरत कन्या हर कोप मा चहा धरके झमाक ले परगट होगे। ओ परी हर अपन ददा कोती पाछू करके मोर आघू मा ठाढ़ होगे। तहां ओ जादूगरनी हर मोर मुंुहु ला देखत-देखत अपन एक ठिक आंखी ला ‘झपुक’ ले अइसे चीप दीस जइसे बजार के बिसाय पुतरी हर अपन आंखी ला चीपत रहिथे। संगी हो! ईमान से। मोर हाट फेल होत-होत बाहंचीस। ओतको म ओकर जुलुम हर ओकर बर कमती हो गे। ओ हा बने मया लगा के मोला देखीस तहां बड़े जीवलेवा अदा से ‘मुच्च’ ले मुस्कुरा दीस। गजब होगे संगी हो। मोर करेजा हर आटा चक्की बरोबर चले लगीस पेट खलभलाय लगीस मैं चेत ले बिचेत हो गेंव। हऊंस गोल हो गे।
अऊ में हा बिचेतहा हो के कब झपा मरेंव ओकर खने खंचवा म, मोला पता नई चलीस। भांटो कथे ‘कइसे हे?’ टूरी के ददा, कथे-‘बने देख ले बाबू।’ में तो रूप अऊ अदा के मतौना म माते रहंव। मतवार बरोबर झुमरत केहेंव-‘मंजूर हे ददा हो! ये रिस्ता मोला मंजूर हे। में बिहाव बर तियार हों।’
वो चतुरा टुरी हर मोला मोहनी थोप के भेंड़वा बना डारीस संगी हो। फोक्कट मा फंसा लीस। में सोंचे रेहेंव के बिहाव म एक ठन हीरो-होण्डा मांगिहौं। कहिके। फेर ये मामला म तो मैं हा कोंदा-बऊरा हो गे रेहेंव। हीरो-होण्डा तो हीरो-होण्डा, हीरो सायकल तको नई मांग सकेंव। सुक्खा डबरी में झपा गेंव संगी हो। उही तुंहर भऊजी बन गे जी। फेर जस-जस बिहाव हर जुन्नाथे, बिहाता के जादू मन्तर हर टूटे लागथे अऊ कोनो नाव ‘सूरत ल’ मन भर के देखे बर मुहुं हर पंछाय लगथे। में हा एक दिन बैठक के खिड़की ल खोलेंव, त दंग रहिगेंव। मोर परोस मा एक झिक गजब सुन्दर किरायादारिन आगे रहय। दिखे म निमगा पंड़री-पड़री गुर के भेली कस लोभ लोभान लागत रहय। कांचे ओढ़ना ल तार म सुखोय बर जब ओहा झटकारीस त ओ ओढ़ना हर आके मोर करेजा मा अरहज गे। में चोर बरोबर कुरिया ला निहारेंव। लक्ठा मा कोन्हों नई दिखीन। मौका बतरे रहय। में धीर लगा के, मुंहु मा अंगरी डार के सिटी ला सिट् ले बजायेंव। ओतका मा बिजली तो कड़क गे। कोनो बादर कस गरजीस ये ऽऽ झन झंपा। में झट ले लहुट के देखेंव। तुंहर भउजी साक्छात काली कस रूप धर के ठाढे रहय। में हा धड़ाक ले खिड़की ल बन्द कर लेंव। घरों के अऊ दिल के घलो। झन झंपाहू संगी हो। चेत जाव।

केके चौबे
गयाबाई स्कूल के बाजू वाली गली
गया नगर, दुर्ग