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कविता

तैं ठउंका ठगे असाढ

तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ।
चिखला के जघा धुर्रा उड़े, तपे जेठउरी कस ठाड़॥
बादर तोर हे बड़ लबरा
ओसवाय बदरा च बदरा
कब ले ये नेता लहुटगे?
जीव जंतु के भाग फूटगे॥
किसान ल धरलिस अब तो, एक कथरी के जाड़॥
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ़॥
धरती के तन हवै पियासे
कपटी साहूकार ह हांसे।
रूख-राई हर अइलागे
कइसे हमर करम नठागे॥
बादर गरजे जुच्छा अइसे, गली म भुंकरे सांड़।
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ॥
हरियावत दूबी भुंजाये,
आंखी के सपना कुम्हलागे।
जरई लेके अईंठगे धान,
चिरई के तलफे परान॥
संसो में अब कांपय, किसान-बसुन्दरा के हाड़।
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ़॥
तहूं का होगेस गररेता?
जइसे देस के बड़का नेता।
उमिहा के तैं बने बरस,
महतारी कस अन्न परस॥
बरस-बरस के खेतखार खोंचका डबरा म माड़।
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ़॥
कहत लागे बादर दानी,
कइसे समागे हे बइमानी।
नंदिया-तरिया तोला निहारे
मेचका टेटका संसो के मारे।
आसा ल हरियावन दे तैं, जिनगी झन होय पहाड़।
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ॥
खेत ह झन परय परता,
पछीना झन होय बिरथा।
नार-बेंयार ल छछलन दे,
डारा-पाना ल उल्हन दे,
लाए हन खातू-माटी, बीज भात करजा काढ़।
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ॥

डॉ. पीसी लाल यादव
गंडई पंडरिया , जिला राजनांदगांव