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दान लीला के अंश : पं. सुन्दरलाल शर्मा

पं. सुन्दरलाल शर्मा ल छत्तीसगढी़ पद्य के प्रवर्तक माने जाथे। सबले पहिली इमन छत्तीसगढी़ मं ग्रंथ-रचना करिन अउ छत्तीसगढी़ जइसे ग्रामीण बोली (अब भाषा) मं घलोक साहित्य रचना संभव हो सकथे ए धारणा ल सत्य प्रमाणित करे गीस। इंखर ‘दान लीला’ ह छत्तीसगढ मं हलचल मचा दे रहिस हे। ओ समें कुछ साहित्यकार मन इंखर पुस्तक के स्वागत करिन अउ कुछ मन विरोध तको करिन। मध्यप्रदेश के ख्याति प्राप्त साहित्यकार पण्डित रघुवरप्रसाद द्विवेदी ह ओ समें के ‘हितकारिणी पत्रिका’ मं ए पुस्तक के अड़बड़ करू आलोचना करिन। तेखर बाद भी ये पुस्तक अड़बड़ जनप्रिय हो गीस, काबर कि ओखर प्रकाशन के थोरकेच समय के बाद बाजार मं अंदाजन आधा दर्जन कई झन लेखक मन के लिखे ‘दान लीला’ के पुस्तक बिके लागिस, जेन सुन्दरलाल जी के ‘दान लीला’ मं थोक-बहुत बदलाव करके छपवाए गए रहिस।
सुन्दरलाल शर्मा के पद्य लिखे के उदीम ले उत्साहित होके कई झन मनखे मन छत्तीसगढी़ मं पद्य रचना सुरू करिन अऊ पौराणिक कथानक उपर आधारित ‘नाग लीला’ अऊ ‘भूत लीला’ नाम के दू पुस्तक प्रकाशित होइस।
इंखर जन्म छत्तीसगढ के प्रसिद्ध तीर्थ राजीवलोचन (राजिम) मं होय रहिस। इमन छत्तीसगढ़ मं सबले पहिली सामाजिक अउ राजनीतिक क्रान्ति जाग्रत करिन। इमन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री स्व० रविशंकर शुक्लजी के सहयोगी रहिन। इमन जीवन भर स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन खातिर कांग्रेस के सेवा करिन अऊ कई पइत जेल घलोक गीन। समाज सुधार के क्षेत्र मं घलोक इमन अभूतपूर्व काम करिन। छत्तीससढी़ के सतनामी सप्रदाय मं जऊन/यज्ञोपवीत के प्रथा जउन हावे ये शर्मा जी के ही सूझ कहे जाथे। उंखर छत्तीसगढी़ दानलीला के अंश प्रस्तुत हावे :-

जब ले सपना में निहारंव वो।
तब ले मिलका नई मारंव ओ।
दिन रात मोला हयरान करैं।
दुखदाई ये दाई! जवानी जरै।
मैं गोई अब कोन उपाय करं।
ये कहूं दहरा बिच बूड़ मरों।
मोला कोनों उपाव नई सूझत है।
ये गोई गोदना अस गूदत है,
जब ले वोला मूड में मौर धरे।
गर में बने फल के माला करे।
लवड़ी दुहनी कर में लटुका।
पहिरे पियरा-पियरा पटुका,
मैं तो जात चले देख पारेंबव ओं
बोला कुंज के मौती निहारेंव ओ
तब ले गोई! मैं बनि गेयेंव बही,
थोरको सुरता मोला चेत नहीं।
चिटको नइ अन्न सुहाबे मोला।
विरदान्त में कोन बतावों तोला।
बढके तोला गोई, बतावों नहीं,
थोरको तोर मेर लुकावों नहीं।
हुस जावत मोर सुभाव गोई।
कतको दुखहाई कोई।

मन मोर चोराय सु लेइस है।
मोहनी कुछु थोप-धौं देइस है।
कौन जानथे जो कुछ जाहे होई।
ये जवानी ला कइसे निभाहों गोई।

(परिचय डॉ.दयाशंकर शुक्‍ल : छत्‍तीसगढ़ी लोकसाहित्‍य का अध्‍ययन का छत्‍तीसगढ़ी भावानुवाद)
छत्तीसगढ़ी साहित्य व जातीय सहिष्णुता के पित्र पुरूष : पं. सुन्दर लाल शर्मा

चौपाई
मोहन कहिन सुनै रौताइन। राजा कंस ला कौन डेराइन ॥
हम जो राजा- के चाकर अन। तेला सुनौ! बतावत हम हन॥
काम महीप नाव ओखर है। राज तीन लोकन के भर है॥
भरती चढ़ती असन जवानी। तौन आय ओखर रजधानी॥
लिगरी आँखी दूत लगाइन। मोला बीरा देय पठाइन॥
तेखर भेजे ले मैं आयेव। तुम्हला इहाँ जगात सुनायेंव॥
सुनत गोठ ऐसन रौताइन। सब्बो सुरता चेत भुलाइन॥
कोनन? काबर कहाँ खड़े हन? रहिस नहीं सुरता एक्को-ठन॥
आँखी गइन मुंदाय सबो-के। मन भीतर हरि मिलन जमो-के॥
होइस तौन बखत सुख जैसे। तेला सुनो! कहाँ मैं कैसे ॥
साध नहीं बांचिस थोरको अस। आठो अंग जुड़ाय गइस बस॥
हरि तब तीर लइन छबि बाहर। आँखी खोल निहारिन सब फिर॥
गहन मोहा देख मोहन ला। सपना असन भइन सब झन-ला॥
कहे लगिन तब सब रौताइन। कोनो नह तुम्हला गम पाइन॥
दोहा
कै तुम हौ वैगा हरी, डारेव टोना आय।
थोपना ऐसन थोप के, मन-ले गयेव चोराय ॥
चौपाई
मोहन सुन्दर श्याम ! सुनौ अब | ग्वालिन हवन तुम्हार शरण सब॥
करिहौ क्षमा जउन कहि पारेन । हम तुमला सर्वस दे डारेन ॥
चाहौ करौ प्राण है हाजिर। दही-दूध के बात कठन फिर॥
साध हमार पुरोयेव मोहन। येखर ऋणिया रहिबो सब झिन॥
आवौ! बैठो! दोना लावौ ! जतका चाहौ वोतका खावौ॥
सुनत बात हाँसत हैं मोहन। बैठ गइन ले-के संगी मन॥
आपन आपन दही निकालिन। रौताइन मन परुसे लागिन॥
मोहन खावैं सखा खवाबैं। कइसे कहाँ कहत नइ आवै॥
बाँधे मोर मूँड के माहीं। पहिरे हैं साजू मजुराही॥
कन्हिया-में-खौंचे-बंसुरी ला। देखत-में मोहत हैं जी-ला॥
दूनो गोड़ पैजनी सोहैं। सोभा लिखे सके अस को-हैं?॥
हरि तब राधा तनी निहारिन। आँखी मिलत हाँस दूनों पारिन॥
राधा सब के नजर बचावै। कोनो हँसत देख झन पावैं॥
ठाढ़े भइन फेर मुख राधा। चितवैं नयन कनेखी आधा॥
देख मने मन में सुख पावैं। एते हँसें बोते गौंठियावें।
दोहा
कहे लगिन सक्‍याय तब, मोहन सुन्दर श्याम।
आज दही अड़गंज तुम, सबो खवायेव राम?॥
चौपाई
राधा-मेर लेवना हरि माँगत। चीखौं तो तुम्हर कस लागत॥
सबके-दुहनी के मैं खायेंव। नइ तुम्हार चीखे-ला पायेंव॥
दिखथे बने सवो मेर के-ले। लालच लगत हवै देखे-ले॥
कइसे लगथे देय खवाहौ?। के हम-ला छुच्छा टरकाहौ॥
नस-नस भींद गइस छिन माहीं। राधा रहे-सकिन-सुन-नाहीं ॥
लेवना एक थपोल उठाइन। मुच-मुचकरत अगाड़ी आइन॥
ओंठ उलाय डार मुह देहन। गाल पिचक आपन करि लेइन॥
हरि चबुलावत मूँड हलाइन। बढ़ के मजा सबो ले पाइन॥
कहिन गोपाल बहुत मैं खायेंव। येखर नहीं बरोबर पायेंव॥
हर
कोनों गगरा पानी डारे। कोनो लेवना हवीं निकारे ॥
कखरो दही मही अम्मठ है। सेर-भरके मैदा मिलवट है॥
कैसनो कोनो हजार बतावे | तोर सवाद-ला-नइ- कोनो- पावैं॥
ऊपर ले देखत में सादा। है मिठास सब्बो ले जादा॥
राधा आभा बचन सुनिन जब। गतर गतर में भेद गइस सब॥
सुख में आठो अंग जुड़ाइस। जइसे तिनहा हंडा पाइस॥
दोहा
रोंवा हो गय टाढ़ सब, आनंद कहे न जाय॥
आँखी ले आँसू घलो, बहे लगिस सुख पाय॥
चौपाई
जेखर मन-में जैसने आइस। तैसन ते-हर श्याम जेंवाइस ॥
रस बस कर लौटिन आपन घर | सब-के प्राण-ज्ञान मोहन-पर ॥
श्याम सरूप त्रिभंग अंग जस | सबके-मन-में रहिस वही बस॥
कोनो नइ कखरो गम पार्व। बही बरोबर रेंगत जावैं॥
फोकट-के गोटी गड़ डारैं। कोनों कांटा गोड़ निकारैं॥
कोनों ला चूरा कसकावै। कोनो पैरी पाँव चढ़ावैं॥
चोहल करें रमूज मड़ावै। तोला गोई! ठौंका भावैं॥
हरि के कहैं चरित्तर फिर-फिर। जैसे-जैसे भाव करिन-हरि॥
झझक जांय सब्बो-झन-रहि-रहि | घर कोती बर पाँव उठै नहि ॥
ऐसन सबो मया-में साने। रात अघात जान नइ जाने॥
ब्रह्मा जेला ध्यान लगाबैं। महादेव जेखर गुण गावबैं॥
कोन सुने अरु कोन बतावै। गोकुल तउन जगात उघावै॥
अपन भगत खातिर भगवाना। करथें चरित अनेक विधाना॥
जेखर जइसन भाव-रथै मन। तेला तइसन मिलथै मोहन॥
देखें नंद अपन बेटवा अस। रौताइन मन जीवन धन-जस॥
काल बरोबर कंस निहारै। भगत प्रगट भगवान विचारें॥
अपन भगत बर सरग बिहाई। मनखे लीला करिन कन्‍्हाई॥
जेला मनुवा गाहैं सुनिहै। सगुण समझि के मोला गुनि हैं॥
दोहा
मन-थिर के जउन हर, भज लेहै एक बेर॥
नइ आहै निस्तुक कहां, ते भव सागर फेर॥