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chhattisgarhiसिक्छा आज दुकानदारी होगे हे, दुकानदारी का? ठेकादारी, ठेकादारी के नीलामी। ‘मोला सहे नहिं जात रहिस अनदेखी भूरि बरत रहि।’ हमर किसान के कोनो नइहे भाई। पइसा वाले के आजो पइसा हे। उंखरे सासन हे, रकस-रकस कमइया किसान, मजदूर ल आजो जानवर, गंवार समझे जाथे। साल भर म पूजा करे जाथे गाय गरूवा के देवारी के दिन ओइसने पांच साल म पूछ लेथे एक बेर, तहां ले फुरसद।नाम से चलय ग सिंघनपुरी के भरत डाक्टर। पिपरिया, कवरधा, का रइपुर, बिलासपुर ले आवय मरीज ओखर मेर। अउ सहि म जी, लकवा वाले मन तो एकदम ठीके होके जात रहिन। सरदी, खांसी, बुखार असन बर छेत्र के दसों-बीसों गांव, ओखर जजमानी बरोबर राहय। दिखब म तो राहय दुबर-पातर, फेर राहय विचित्र फिट्ट। चार बजे ले उठ के गाय-गरुवा के जतन करके, नहाके, पूजा पाठ करके हाजिर हो जाय। छै बजे घरे ले लगे अस्पताल म अतेक बिहिनिया ले घलो लग जाय राहय लाइन मरीज मन के। माधमिक सिक्छा मण्डल म पुनरगणना के फारम भरइया मन कस लाइन। ओखर अतेक परसिध्दि होइस कइसे? ओ ह खुदे बीमार रहिस। 27-28 साल के उमर म ओला टीबी होय राहय। बड़ इलाज, बेंदरा कस, इहां ले उहां, फेर कोखरो काटे नई करिस। टीबी थोकिन जीव लेवा नस म गांठ वाले होगे राहय। अंगरेजी दवाई गोटी ले हार के फेर आयुरवेदिक के खियाल आइस। आदमी जइसे संसार ले जब निरास हो जाथे, त भगवान के सुरता आथे तइसे। कुछ दवाई लेइस, कुछ पुस्तक पढ़िस आयुरवेद के। धीरे-धीरे शरीर के बारे म अनुभव अउ ज्ञान होये लगिस। गांठ ह तो पूरा तरीका ले खतम नई होइस। फेर पूरा-पूरा ठीक अनुभव करे लगिस। सुग्घर देह आगे, पेट घलो साफ होये लगिस। तभे ले ठान लिस के अपन अनुभव ले मनखे मन के सेवा करहूं अउ धीरे से एकाध एलोपेथिक, आयुरवेदिक के अउ पुस्तक पढ़के, करे लगिस डाक्टरी। डिगरी तो कुछु नई राहय, फेर कतको सिविल सरजन फेल। कई झन तो दवाई गोली ल चना-चरबेना कस खवाथे, अउ पेट के सत्यानास कर देथें, जबकि जम्मो जर बिमारी, हाथ पांव दरद सबके जर पेट के गड़बड़ी होथे, ये बात के अनुभव करे ले राहय भरत डॉक्टर।
बड़ दिन म मउकालगिस घनसियाम के ओखर अस्पताल म जाय के। जय राम पइलगी तो करबे करय, भेंट हो जय कभू त फेर आज ग्राहक का होये राहय? ओखर छोटू धरमेन्द ल डाभा होगे राहय। दू तीन दिन ले सनफन-सनफन करत, तरी-ऊपर सांस लेवत। कमचील के आगी म घलो सेंक डरे राहय। फेर पूरा कंट्रोल नई होये राहय। एहि ले, ओखर बाई लीलउतीन कहिथे- ‘चलव जी, डाक्टर मेर ले जाबोन, देखते-देखत जीन डरहि त…।’ हव ओ! ‘सिरतोन काहत हस’ साइकिल म आगे तीनो परानी। घंटा डेढ़ घंटा ले बारहे पार परछी म बइठे, मांछी हाके के बाद लगिस नम्बर। ‘अरे छोटे डाक्टर साहब, ‘जय राम’ कब के आगे हव? होगे पढ़ई खतम!’ कई ठी उत्सुकता उठिस मन म फेर जादा परिचय लेना-देना घलो जी के जंजाल होथे। कभू-कभू, अउ अइसे भी टेम नई राहय। जय राम कहिके आगू बढ़ादिस अपन छोटकू ल देखे जांच बर। ‘कब ले आवत हे? का करे हव? कहां देखाय हव अउ…?’ जइसे दू चार जानकारी ले दे के सेकाई करके, सूजी लगाके, महतारी के परहेज बताके, दे दिस दवई-सिरफ ‘अउ कल देखा लेबे आंय’ ‘हव भईया’ काहत मुरझागे- घनसियाम के सकल। आज पइसा नई हे, सोंचत हस का जी? ‘जल्दी-जल्दी मा ओ…’ ले कोई बात नई हे, मैं लिख ले थंव, बाद म दे देबे बेवस्था करके। कहिके लिखिस एकठन कापी म। अउ हां सुन न जी, घबराये को कोनो बात नइहे। परहेज से खाही, खवाही कंट्रोल होहिच्चे। कल अउ देखा लेबे। ‘हव भइया’ काहत निकलगे घनसियाम ओ कुरिया ले। आगे दूसर मरीज। ‘का होगे हे कब ले….?’ पूछे लगिस डाक्टर।
चल देख लंव, कतेक बनगे हे नवा अस्पताल सोचके एक नजर मारिस अस्पताल डाहर। वाह एकदम झम्म लगत हे। टाईल्स मन दूरिहा ले चमकत हे, जगह-जगह लगे हे सीसा। पेंटिंग होवत हे। फिनिसिंग के काम एकदम जोर म हे। ‘बनत तक ले एकाध महीना म उन्हें सिफ्ट हो जाहि’ सुने म आइस।
परहेज से खवाये गइस गोली दवई। अइसे-तइसे चार पांच दिन होगे, आवत-जावत फेर बिलकुल ठीक घलो होगे धरमेन्द। ‘डाक्टर भइया, आज ले नई आये ल लगय, काहत हव, त कतेकन होइस, आज पटा देतेंव सोंचे हंव।’ ‘हव ले बता देथंव आय’ कहिक लाली कापी ल खोलिस, एक मिनट जोड़-भाग लगाइस अउ बताइस ‘दू हजार सिरिफ।’ ‘दू हजार…।’ सुनके घनसियाम के तरूवा चटकगे, सन्न खागे। बड़ धीरज धरके जोड़-तोड़ म धोखा होगिस होहि सोंचक ‘दू हजार ग महराज!’ हंव दू हजार। ‘भारी नहीं, बड़ भारी लागत हे महराज। मैं तो…।’ ‘सुन भाई मैं कोई गलत सलत नई जोड़े हंव जी। परेसान झन हो जी। तोला मैं एक-एक ठन बतावत हंव’ डायरी ल खोल के देखाइस, बताइस ‘कुल मिलाके दस सूजी लगे हे। लगे हे न?’ हं, लगे तो हे। पचास रुपिया सूजी म पांच सौ के होगे। सौ रुपिया मोर फीस रोज के, पांच सौ होगे। सेकई-दवई के एक हजार। तोर मेर अनाप-शनाप कहां जोड़त हंव जी।’ घनसियाम डाक्टर अउ साहूकार संग बहस, पानी म रहिके मगरा ले बैर के बरोबर, समझके, कुछु बोले के पक्ष म नई राहय, फेर गरीबी चिरहा बंडी ले झांके लगिस। निवेदन करिस ‘महराज, मैं गरीब गुरबा आदमी, थोकिन देख लव तुंहर पिता जी तो…’ ‘देख भाई’ ‘डाक्टर झट ले बोलिस- मोर पापा बीस रुपिया सूजी के लगाथे, कोनो फीस नई लेवय, सहिं हे, फेर मैं तो बीस लाख सिरिफ डोनेसन देय हंव। पांच साल के बाहिर म रहिके पढ़े हंव, लाख-दू-लाख वारसिक फीस, अउ फेर ये नवा अस्पताल, ये सब तुंहरे बर तो आय भाई। तुंहर सिवा, अउ कोन हे मोर, जउन….’ घनसियाम समझगे, कंझागे, अउ ‘ले ठीक हे महराज, सांझ के देवत हंव’ कहिके निकलगे अस्पताल ले एक-एक कदम भारी-भारी लगे लगिस। रद्दा म जम्मो बात ल बताइस अपन गोसाइन ल। ‘हे भगवान! दूबर ल दू असाढ़। कइसे करबो अतेकन के बेवस्था।’
ओ दिन एक बजे ‘अरे घनसियाम भइया! आ बइठ-बइठ। बड़ भारी दिन म…।’ ‘हव तिलक भइया’ खुर्सी म बइठत। ‘ये सम्पत्ति, थोकिन दू कप चाय बना दे बेटी।’ ‘हव पापा’ अंदर ले आवाज आइस। ‘नई लगे, नई लगे ग…।’ घनसियाम के मना करे ऊपर ले घलो मैं….। ‘अउ सुना का होवत हे भइया, सब बने-बने तो हे न।’ ‘हव भइया का बने का घिनहा’ काहत घनसियाम के सकल करियागे। ‘ओ का बताबे तिलक भईया।’ ‘घनसियाम जम्मो बात बताइस। ‘झन दुख कर भइया, मैं समझायेंव हमर सिस्टमें बिगड़ गे हे। सिक्छा वाले के ही सिक्छा चलत हे। सासन चाहतिस त जगह-जगह ये डाक्टरी के कालेज खोल सकथे अउ पढ़ई के खरचा कम कर सकत हे, फेर सिक्छा तो आज धंधा बनगे हे, अउ सरकारें ह धंधा बनाये हे। ये अंगरेजी मीडियम के गुरुकुल मन भारतीय संस्कार ल सिखा सकत हें?’ ‘पापा’ काहत, मोर बेटी आगे चाय धरके। पीये लगेन चाय मैं अउ घनसियाम ‘लेकिन सुन न, तिलक भाई, सासन करथे काबर अइसन?’ घनसियाम के मन म बात उठित ‘देख भाई साले ल ये सब नाटक हे। एक तरफ बिकास के नवा रद्दा गढ़े के डंका पीटे जात हे, अउ दूसर डाहर जनता के सोसन के नवा-नवा तरीका खुलत हे।’ अइसने पढ़े लिखेच्च मन तो आतंकवादी, नक्सलवादी बनथे। खरचा करे हे, त कोनों मेर कुछ कमाये के रद्दा तो खोजहिच्चे। का उभन ह साले ल, एकदम बिबेकानंद बना देथें। जेन…। का गोठियाबे घनसियाम भइया, ताम-झाम के चोचला के जमाना हे, सब जगह दुकान म, मकान अउ सिक्छा दान म घलो। सिक्छा आज दुकानदारी होगे हे, दुकानदारी का? ठेकादारी, ठेकादारी के नीलामी। ‘मोला सहे नहिं जात रहिस अनदेखी भूरि बरत रहि।’ हमर किसान के कोनो नइहे भाई। पइसा वाले के आजो पइसा हे। उंखरे सासन हे, रकस-रकस कमइया किसान, मजदूर ल आजो जानवर, गंवार समझे जाथे। साल भर म पूजा करे जाथे गाय गरूवा के देवारी के दिन ओइसने पांच साल म पूछ लेथे एक बेर, तहां ले फुरसत।’ ‘ले छोड़ भईया, काहत हस तेन सहिं हे, फेर हमर, किसान मजदूर के हाथ म फोरा अउ माथ म पसीना लिखेच्च हे।’ ‘घनसियाम ल मोर बात काल्पनिक अउ नीरस लगे लगिस।’ ‘अइसन झन सोंच भइया…।’ मोर मन म भडास भरे कस, रूकबे नई करत राहय। अइसन हाथ म फोरा नहिं लकीर के तकदीर के जगह होथे। सरकार ले जादा हमर मन के गलती हे। बाहरी लगइया, पानी देवइया, चपरासी मन घलो संगठन बनाके पूरा एकता, बल के साथ लड़थे, एकदम कटाकट। काबर हक समझके अउ जीत जथें घलो, फेर हमन तो कमाये ल भर जानथन, जानवर कस, कभू हक नई समझेन अपन, सहीं दाम पाना। कभू-कभार एकाध आन्दोलन त पैरा कस आगी झट ले बुझा जाथे। ले घनसियाम भइया महूं कहां के एकदम नेता कस भासन मारे लगेंव ‘मैं उठेंव’ ले बइठ, तोहू ल देरी होहि। ‘कतेकन ला देव।’ एहि करीब बारातेरा सौ अउ…। ‘होहि त नहिं त’ ले न होहि त देखत हंव। मैं भीतर गेयेंव। ये ले घनसियाम भइया रहिस हे। मैं हाथ लमायेंव। सकुचावत झोकिस घनसियाम। परेसान झन होबे जब होहि त दे देबे, मोर मेर हावय अभी खरचा के पूरता। ‘हंव’ राम-राम भईया कहत निकलगे घनसियाम गरीब के मजबूरी ल गुनत, चले लगिस घर डाहर मुंड़ म झूमे लगिस अनगिनत बात घुनघुट्टी कस।

तेजनाथ
बरदुली पिपरिया, कबीरधाम
संग्रह के उद्देश्य से यह रचना देशबंधु के मड़ई परिशिष्ठ से साभार लिया गया है.