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कहानी

नान्हे गम्मत : झिटकू-मिटकू

किताब, डरेस अउ मंझनिया के जेवन के संगे संग कई ठन सुविधा देवत हे। छात्रवृत्ति पइसा तको देथे। जेन ह जादा गरीब हे अपन लइका मन ल नइ पढ़ा सकंय उंकर बर जगा-जगा छात्रावास आसरम अउ डारमेटरी इसकूल चलावत हे।
‘दिरिस्य पहला’
(मिटकू ह छेरी-पठरू चरावत रहिथे उही डहर ले झिटकू ह इसकूल जाथे। मिटकू ह झिटकू ल देखके दऊंड़ के ओकर मेर आथे अउ कहिथे):
मिटकू: अरे यार झिटकू, तैं तो साहेब असन दिखत हस। यहा दे जूता-मोजा, बेल्ट अउ ये ह काय हरे यार?
झिटकू: अरे! मोर संगवारी, ये ल टाई कहिथे यार टाई।
मिटकू: सिरतौन! तैं ह साहेब असन दिखत हस। लगथें तैं ह अब्बड़ पढ़-लिखके साहेबेच्च बनबे।
(निरास होके) अरे भई झिटकू मोरो मन करथे। अइसने डरेस पहिर के इसकूल जाय बर। फेर काय करबे। मोर ममा दाई ह तो नइ मानय।
झिटकू: ममा दाई ह तो तोला बड़ मया करथे मिटकू। तैं ह जिद करबे तहांले तोला इसकूल जरूर भेजही।
मिटकू: मोर ममादाई ह कहिथे, पढ़-लिख के काय करबे? इहां तो बीए-एमए पढ़े मन कतको झन गोल्लर कस किंदरत हें। तैं ह पढ़-लिख के काय रौती कर डारबे।
झिटकू : देख मिटकू! ममा दाई ह मानही धन नहीं। लगथे ये छेरी-पठरू चरावत-चरावत मैं ह अड़हाच्च रहि जाहूं, तइसे लगथे। नहीं…! आज मैं चुप नइ राहंव। ममा दाई करा सोर मचाहूं तभेच्च बनही।
(झिटकू ह इसकूल चल देथे, मिटकू ह छेरी मन ल उही जगा छोड़के अपन घर जाथे अउ ममा दाई करा इसकूल भेजे बर जिद करथे)
‘दिरिस्य दूसरा’
मिटकू: ममा दाई ओ ऽऽऽ ये ममा दाई ऽऽऽ कहां चल देय ओ ऽऽऽ।
ममादाई : का ये। अतेक काबर चिल्लावत हस रे रोगहाऽ का हो गे तेमे।
मिटकू: अउ का होही! करिया आखर कारी छेरी बरोबर। एक झन डोकरा ह कहत रिहिस। ममादाई! मोर संगवारी झिटकू ह मस्त जूता-मोजा, बेल्ट अउ काऽऽ कहिथें… हां टाई पहिर के इसकूल जावत रिहिस। रस्ता म मिलिस ममादाई एकदम साहेब बरोबर दिखत रिहिस।
ए ममादाई! ओला देख के मोरो मन ह पढे बर करथे ओ। महूं ह वइसने डरेस पहिर के इसकूल जातेंव। मोला इसकूल भेजबे न ममादाई!
ममादाई : हौ, तोला इसकूल भेजहूं। तैं ह इसकूल जाबे त छेरी पठरू ल का तोर ददा ह चराही रेऽ खाय के पातूर! अउ छेरी मन ल कहां छोड़ के आय हस रे। पठरू ल तो कुकुर मन हबक दिहीं रे।
हे भगवान! कहां-कहां ले ए गड़ौना के संगत परगे। अरे जाना रे झटकुन। कुकुर-माकर मन चाब डारहीं।
मिटकू : मैं नइ जांव ओ! छेरी चराय बर। मैं पढ़े बर जाहूं। तैं कुछु कर डार।
ममादाई: तैं जाथस के नइ जास।
(ममा दाई लउठी धरके मिटकू ल दउंडाथे)
‘दिरिस्य तीसरा’
(ओतके बेर गांव के गुरुजी के आना)
गुरूजी: कइसे दाई! मिटकू बर अतेक काबर गुसियागे हस?
ममादाई : देख ना गुरूजी! ए मिटकू ह सब्बो छेरी-पठरू मन ल छोड़ के आगे हे अउ मोर करा इसकूल जाये के जिद करत रिहिस हे। एक तो मोर कोनो नइहे। नानपन ले एकर दाई-ददा दूनों सरग सिधारगें। मैं गरीबिन कइसनो करके पालत-पोसत हौं। मैं एला कहां पढ़ा सकहूं। तहीं बता ना गुरूजी।
गुरूजी: नहीं दाई! अइसे बात नइहे। आज के समय म पढ़ई-लिखई बर गियारवीं-बारवीं तक जादा खरचा नइ लागय। सरकार ह सर्वसिक्छा अभियान चलावत हे। किताब, डरेस अऊ मंझनिया के जेवन के संगे संग कई ठन सुविधा देवत हे। छात्रवृत्ति पइसा तको देथे। जेन ह जादा गरीब हें, अपन लइका मन ल नइ पढ़ा सकंय उंकर बर जगा-जगा छात्रावास आसरम अउ डारमेटरी इसकूल चलावत हे। ऊंहा खाए-पिए, कपड़ा-लत्ता, पइसा-कउड़ी अउ पढ़ई -लिखई के सबो सुविधा हावय।
ममादाई: मैं तो ए सब ल नइ जानव गुरूजी। निच्चट अड़ही औं। तैं ह कहूं कोसिस कर देते गुरूजी ते एहू ह थोर-बहुत पढ़-लिख लेतिस। मुरहा-पोट्टा आय मोरो नांव ह जाहरित हो जातिस।
गुरूजी: ठीक हे दाई। काली मोर संग मिटकू ल भेज देबे आसरम नइते डारमेटरी इस्कूल म भरती करवा देहूं।
‘दिरिस्य चंउथा’
(आगू दिन)
(गुरुजी ह मिटकू ल धरके इसकूल आसरम म भरती करवाए बर जाथे।)
गुरुजी ह मिटकू ल तीर के गांव पेड़ावारी के डारमेटरी इसकूल म भरती करवा देथे।
मिटकू म ममादाई ह गजबेहेच्च खुस हो जाथे अउ गुरूजी ल आसीस देथे।
अपन छेरी पठरू ल एक मन के आगर चराय बर जाथे
(गम्मत इहं सिरा जाथे)

गणेश यदु
संबलपुर कांकेर