Categories
कविता

पीतर

जिंयत भर ले सेवा नइ करे , मरगे त खवावत हे ।
बरा सोंहारी रांध रांध के, पीतर ल मनावत हे ।
अजब ढंग हे दुनिया के, समझ में नइ आये ।
जतका समझे के कोसीस करबे, ओतकी मन फंस जाये ।
दाई ददा ह घिलर घिलर के, मांगत रिहिसे पानी ।
बुढत काल में बेटा ह , याद करा दीस नानी ।
दाई ददा ह मरगे तब , आंसू ल बोहावत हे ।
बरा सोंहारी रांध रांध के, पीतर ल मनावत हे ।
एक मूठा खाय ल नइ देवे, देवे वोला गारी ।
बेटा होके बाप के, करे निंदा चारी ।
वोकरे कमई के राज में , बइठे बइठे खावत हे ।
भुलागे सब एहसान ल , गुन ल नइ गावत हे ।
मरगे बाप ह तब , मांदी ल खवावत हे ।
बरा सोहारी रांध रांध के, पितर ल मनावत हे ।
बड़े बिहनिया सुत उठ के , तरिया में जाथे ।
आत्मा ओकर सांति मिले , पानी देके आथे ।
कांव कांव करके कौवा ह , बरेंडी में आथे ।
दाई ददा ह आगे कहिके, बरा ल खवाथे ।
मरगे दाई ददा तब , आनी बानी के खवावत हे ।
बरा सोहारी रांध रांध के, पीतर ल मनावत हे ।
पहिली ले सेवा करतेस , मिलतीस तोला सुख ।
कांही बात के जिनगी में , नइ होतीस तोला दुख ।
देखा सीखी तोरो बेटा , करही तोला वोइसने ।
देही दुख तहूं ल , करे हस ते जइसने ।
समय ह निकलगे तब , पाछु बर पछतावत हे ।
बरा सोहारी रांध रांध के, पीतर ल मनावत हे ।

महेन्द्र देवांगन “माटी”
पंडरिया
[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”ये रचना ला सुनव”]