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कविता

पुरखा मन के चिट्ठी

जय भारत , जय धरती माता
सबले उप्पर म लिखे हवय ।
सब झन बर , गजब मया करे हे ,
लागत हे सऊंहत दिखत हवय ।
हली भली रहिहहु सब बेटा ,
हम पुरखा मन चहत हबन ।
करम धरम हे सरग नरक ,
बिन सवारथ के कहत हबन ।
धुंआ देख के करिया करिया ,
छाती हर गजब धड़कथे ।
कोन जनी का बीतत होही ,
रहि रहि के आंखी फरकथे ।
एके माई के पिला सब झन ,
सुनता म रहिहऊ भईया ।
चंद रोजी जिनगी म सुघ्घर ,
गावव नाचव ता ता थइया ।
पांच सात ठिन लकड़ी होथे ,
एक झिन मनखे के बोझा ।

काम परे तब जुरिया जावव ,
फेर सेवर अमली कस गोजा ।
पेट भर रोटी सब कोई खावव ,
डट के उपज बढ़हावव ।
तन भर कपड़ा सब पहिरे ओढ़य ,
कुटिया जम्मो के छबावव ।
करिया अकछर भंइस बरोबर ,
अब कन्हो मनखे झन बोलव ।
ओसहा पानी बिन मरगे बिचारा ,
भेद कहूं झन खोलव ।
मनदीर मसजिद गिरजा गुरूदुवारा ,
एक देवता के रूप पसारा ।
परेम के एक ठिन रसदा हावय ,
कहे सुने के नियारा नियारा ।
मोर जम्मो लइका बाला मन ,
पढ़के समझहू चिट्ठी ला ।
मानवता बर जीहू मरहू ,
कलंक लगे झन मिट्टी ला ।
समझदार बर जादा का लिखंव ,
तुम मोर करेजा हीरा ।
गुनहगरा घबरू झन बनहू ,
पुरखा के समझहू पीरा ।

सुख ला बांटव , दुख ला बंटावव ,
सुरता राखव परोसी के ।
अनचिनहार बर कमती झन करहू ,
दया मया राखहू भरोसी ले ॥

गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा
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