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समीच्‍छा हिन्‍दी

पुस्तक समीक्षा : अव्यवस्था के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्ति ‘‘झुठल्ला‘‘

महान विचारक स्वेट मार्डन ने कहा है कि ‘कहकहों में यौवन के प्रसून खिलते है।‘ अर्थात उन्मुक्त हँसी मनुष्य को उर्जा से भर देती है। पर आज के भौतिकवादी इस युग ने जीवन को सुविधाओं से तो भर दिया है पर होंठो से हँसी छिन ली है। एक ओर ढोंगी, पाखंडी, बेईमान और भ्रष्ट लोग अपनी आत्मा को बेचकर समृद्धि की शिखर पर मौज मना रहे हैं वहीं दूसरी ओर ईमानदार, श्रमशील और सत्यवादी लोग दो-जून की रोटी को तरस रहे है। जब चारों ओर ढोंग, आडम्बर, पाखंड का पहाड़ खड़ा हो, नैतिक मूल्यों का हा्रस हो रहा हो। संवेदनाएं सूखती जा रही हो और मनुष्यता छटपटा रही हो तो संवेदनशील मनुष्य आखिर हँसे तो कैसे हँसे? चूंकि व्यंग्य के साथ पाठक हास्य की अपेक्षा रखते हैं। इसलिए व्यंग्यकार अपनी रचना को सुरूचिपूर्ण बनाने के लिए व्यंग्य के साथ हास्य का समावेश अवश्य करता है पर उसका उद्देश्य केवल हँसाना नहीं होता बल्कि चेतना को झकझोरना होता है।
हास्य-हास्य में भी अन्तर होता है। एक हँसी विनाश का कारण बनती है जैसे दुर्योधन पर द्रोपदी की हँसी के कारण ही महाभारत का युद्ध हुआ था क्योंकि यह उपहास की हँसी थी। और एक हँसी चिन्तन का सबब भी बनती है। उदाहरणार्थ मैंने कहीं पढ़ा है कि कवि जायसी जब बादशाह शेरशाह के दरबार में पहुँचे तो उसकी कुरूपता देखकर बादशाह हँस पड़े तब जायसी ने हँसते हुए पूछा-‘मोहि कां इससि कि कोहरहि‘ मतलब आप किस पर हँस रहे हैं? मुझ पर या मुझे बनाने वाले पर? रचना पर या रचियता पर? जायसी के कहे का आशय समझ में आते ही बादशाह लज्जित हुए और वे चिन्तन में डूब गये। फिर उन्होने जायसी की विद्वता को यथोचित मान-सम्मान दिया। व्यंग्य का काम केवल व्यवस्था का उपहास करना नहीं है बल्कि व्यवस्था को और भी अधिक जनकल्याणकारी बनाने के लिए प्रेरित करना होता है। इसी अभिष्ट की प्राप्ति हेतु श्री कृष्ण कुमार चौबे जी , विसंगितयों, विद्रुपताओं और मुखौटों के भीतर छिपे चेहरों पर व्यंग्य वाण चलाते हैं। अपने प्रथम छत्‍तीसगढ़ी व्यंग्य संग्रह ‘लंदफंदिया‘ को पाठकों से मिले अपार स्नेह से उत्साहित चौबे जी अपने दूसरे व्यंग्य संग्रह ‘झुठल्ला‘‘ लेकर पाठकों के बीच उपस्थित हुए है।
बुजुर्गो का कहना है कि साँच कहे तो मारन धावा, झूठ कहे तो जग पतियावा आशय स्पष्ट है कि झूठ कहने पर लोग आसानी से विश्वास कर लेते हैं और सत्य कहने पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं। आज का युग विज्ञापन का युग है। पूरा बाजार विज्ञापन की बुनियाद पर ही खड़ा है। पीतल पर सोने की कलई चढ़ाकर सोने के भाव बेच देना बाजार का बायें हाथ का काम है। अब केवल बाजार ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में झूठों का ही बोलबाला है। झूठों के बढ़ते हुए वर्चस्व को ही केन्द्रिय विषय बनाते हुए और पाठकों को सजग और सचेत करते हुए चौबे जी ने संग्रह का नामकरण झुठल्ला किया है। संग्रह में संग्रहित लेख कथात्मक और पत्रात्मक शैली में है। जहां झन झपा लेख यातायात की समस्या की ओर संकेत करता है तो तीजा आवत हे , जीव धुकधुकावत हे लेख महंगाई की समस्या को इंगित करता है। संग्रहित लेखों में विशेष रूप से पत्रात्मक शैली में लिखे हुए व्यंग्य भकाड़ूराम के दुसरइय्या चिट्ठी राजनीति में अल्पश्कि्षितों के वर्चस्व पर व्यंग्य करता है तो तीसरइय्या चिट्ठी दलबदल और अवसरवादी राजनीति पर गहरा कटाक्ष करता है। व्यंग्य में भाषा की भूमिका बहुत ही महतवपूर्ण होती है। भाषा ही साहित्य की अन्य विधाओं से व्यग्य को अलग करती है। व्यंग्य अमीर ल गरीब के चिट्ठी में कार्पोरेट की कठपुतली बनकर नाचती हुई राजनीति पर व्यंग्य वाण चलाते हुए लेखक की सधी हुई भाषा की ताजगी और रवानगी देखिए कि
‘‘ हमन देस के खातिर गर कटाय बर अपन लइका मन ला फउज म भेजथन। अउ तुमन अपन लइका मन ला अपने कस अमीर बनाय बर हमर गर म छुरी दंताथो। नेता मन तो तुंहर ‘गरी‘ मा फंसेच रहिथें। पइसा गारे बर तुम कतको ‘गिर‘ सकत हो। का होईस, गिरहू तभे तो गारहू। हमर भाग म तो सिरिफ गारी हे महराज। तेकरे बर हमन गरीब (यानि कि गारी-बे) कहाथन।‘‘
गरीबनवाज ल गरीब के चिट्ठी व्यंग्य में र्धार्मक ढकोसले से अपना उल्लू सीधा करने वालो पर निशाना साधते हुए लेखक लिखता है कि-
‘‘ छोटे पापी हर कोनो कोन्टा-उन्टा म तुंहर बर नानकुन, मुड़ी बुलकउ मंदिर बना देथे, तब बड़का पापी मन या तो बड़े-बड़े मंदिर मा करोड़ों के सोना के जेवर चढ़ा देथे या कि बड़े जन मंदिर बनवा देथे। ओ मंदिर के एक-एक ईंटा म हमर लहू सनाय रहिथे परमात्मा।‘‘
दलबदल और अवसरवादिता की राजनीति पर व्यंग्य करते हुए लेखक लिखता है कि-
‘‘ भई आदमी के दार चुरना चाही। चाहे कोनो पानी म चुरय। कुआं के पानी म नई चुरय तब तरिया के पानी म चुरोवव, तरिया के पानी म नई चुरय तब बोरिंग के पानी म चुरोवव। उहू म नई चुरय त डबरीच के पानी म चुरोवव। दार चुरना चाही। घोटरहा दार ला थोड़े खाहू भई। त तुमन निशदिन दार चुरोय के उदिम म लगे रहिथव, ये बात के में तारीफ करथव। तभे तो तुमन ला लदबदाय दार सरपेटे के मजा मिलत रहिथे।‘‘
जब किसी लेखक के सामने अपने ही समाज की विसंगतियों पर कलम चलाने की बात आती है। तो उसकी स्थिति अर्जुन के समान हो जाती है सामने सब अपने ही परिजन नजर आने लगता है पर व्यंग्यकार का केवल एक ही धर्म होता है, वह है विसंगतियो पर प्रहार करना। इस बात को सिद्ध किया है चौबे जी ने अपने व्यंग्य लेख मोर का जाही में। कथनी और करनी की असमानता पर लेखक ने बड़ी बेबाकी से कलम चलाई है।
के के चौबे जी के व्यंग्य संग्रह झुठल्ला से गुजरते हुए हर पाठक आत्म साक्षात्कार करने के लिए बाघ्य और सोचने के लिए मजबूर होता है। एक स्वस्थ्य, समृद्ध और समतामूलक समाज का निर्माण करना ही व्यंग्य का उद्देश्य है। इस कसौटी पर के के चौबे जी की व्यंग्य रचनाएं खरी उतरती है। एक सार्थक और सोद्देश्य व्यंग्य संग्रह के लिए के के चौबे जी को मेरी हार्दिक बधाई और उनके यशस्वी लेखकीय जीवन हेतु अशेष शुभकामनाएं।

वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी ( छत्‍तीसगढ़)
मो-7828243377