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पुस्तक समीक्षा : माटी की महक और भाषा की मिठास से संयुक्त काब्य सग्रंह- ‘जय हो छत्तीसगढ़’

राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी भाषा को समुचित मान-सम्मान मिलने लगा है और यहां के निवासियों के मन में से अपनी भाषा के प्रति जो हीनता का भाव था वह भी समाप्त होने लगा है। इसलिए आजकल साहित्य की सभी विधाओं में छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रचुर मात्रा में लेखन हो रहा है। भाषा की समृद्धि और विकास के लिए यह सुखद और सकारात्मक संदेश है। यदि हम आज से तीस चालिस साल पहले की कल्पना करें जब छत्तीसगढी को देहातियों की भाशा कहकर तिरश्कृत किया जाता था और छत्तीसगढ़ी भाषी आदमी को देहाती समझकर हेय की दृश्टि से देखा जाता था। निश्चित ही उस समय अपनी भाषा के मान-सम्मान और स्वाभिमान के लिए प्रतिबद्ध लेखक कवियों और प्रबुद्ध नागरिको का खून खौल उठता रहा होगा। फिर ऐसे ही लोग छत्तीसगढ़ी की अस्मिता की लड़ाई की शुरूआत की हो होगी और अपने सम्पूर्ण वैचारिक प्रखरता के साथ छत्तीसगढ़ी लेखन को अपना जीवन लक्ष्य ही बना लिया होगा। मैं ऐसे कवि, लेखकों को प्रणाम करता हूं और उनकी लेखनी को नमन। मेरे इन्हीं प्रणम्य कवियों मे से एक है भाई ललित पटेल जो सन 1970 से छत्तीसगढ़ी में लेखन करके छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा कर रहे है।

विश्व में छत्तीसगढ़ के प्रयाग के नाम से प्रसिद्ध राजिम की उर्वरा धरती पुराने समय से ही साहित्य, कला और संस्कृति की संस्कारधानी रही है। यहां के साहित्य मनीषियों के साहित्यिक प्रभामंडल से प्रभावित होकर ही ललित भाई को कलम थामने की प्रेरणा मिली। संत कवि पवन दीवान और श्रद्धेय कृष्‍णा रंजन महराज के आशिष तले ललित भाई की लेखनी से निसृत विचार महानदी की धारा के समान पूरे वेग से सतत प्रवाहित होता रहा है। ललित भाई मान-सम्मान की लालसा से दूर अपने सेनानी गाम खिसोरा में लम्बे समय से एकाकी साहित्य साधना करके अपने युवावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के जीवन अनुभव को जिस कृति में पिरोया है वह है ‘जय हो छत्तीसगढ़’। यह काव्य संग्रह अभी-अभी वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित हुआ है।

चूकि ललित भाई ने हल और कलम की साधना एक साथ की है। इसलिए कृति की रचनाओं में ग्राम्य जीवन की झांकी जीवन्त हो उठी है और किसानों की पीड़ा का अहसास कृति की रचनाओं में महसूस की जा सकती है। इस कृति में प्रकृति चित्रण से लेकर खेत-खार, बाड़ी-बखरी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के तीज-तिहार और मुख्य भोजन बासी का वर्णन मिलता है। इसलिए हम इसे माटी की सोंधी महक और भाशा के मिठास से सयुंक्त काब्य संग्रह कह सकते है।

यदि हम संग्रह की भाषा की बात करें तो इसमें ऐसे-ऐसे दुर्लभ छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अब विलुप्ति के कगार पर है। कृति को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि इसमें प्रयुक्त भाषा के माध्यम से छत्तीसगढ़ की आत्मा बोल रही है। और उपमान के तो कहने ही क्या इसे पढ़कर तो चमत्कृत ही रह जाना पड़ता है। ग्रीष्‍म ऋ़तु मे चलने वाली लू का वर्णन करते हुये जब कवि लिखता है-’नवा बहुरिया बनके उम्मस नखरा गजब देखाथे’ और ‘टूटहा पनही के बीच ले भोभरा, रट ले चुम्मा लेथे, बबा बडोरा आघू आके चटले थपरा देथे रोश बड़भारी होगे, झांझ संगवारी होगे।’ कुछ और उपमान की बानगी इन पक्तियों में भी हम देख सकते हैं ‘उच्छाह तो बिमरहा हे, खटिया में पचत हे‘ तथा ‘आशा ह अंगना मा चौकी पूरे हे, सपना सेंन्दूर लगाके बने हे बहुरिया’। कवि की दृष्टि ना केवल प्रकृति, खेती-बाड़ी और तीज-तिहार पर ही है बल्कि सामाजिक कुरीतियों पर भी वे अपनी लेखनी के माध्यम से वार करके समाज को सचेत करते है। मृत्यु भोज के कारण मृतक के परिवार की दयनीय दशा और पीड़ा इन पक्तियों में दृष्टिगोचर होता है- ’डोकरा तरगे बपुरा मरगे, बांचे-खोंचे सब पाना झड़गे। ठाढ़ सुखागे किरिया करम मा, कस कसके पंगत पड़गे। बांचे खेती घला बेचागे, छेक सकव ते छेकव गा।’ दहेज, गौ हत्या, बेरोजगारी और समाज में बढ़ते हुये छल-कपट बेईमानी जैसे ज्वलन्त मुद्दो पर कवि ने अपनी लेखनी चलाकर कवि धर्म का बखूबी निर्वाह किया है। धन-धान्य और वन तथा खनिज संपदा से परिपूर्ण रत्नगर्भा छत्तीसगढ की धानी धरती पर लुटेरों की गिद्ध दृष्टि अभी भी लगी हुई है। आज भी हम छले जा रहे है। हमारे जल जंगल और जमीन लूटे जा रहे है। कवि की सजग दृष्टि इस पर भी है तभी तो वे छत्तीसगढ़ के युवाओ को सचेत करके इस लूट के खिलाफ एक जुट होने का आव्हन करते हुये लिखते है कि ‘बस्तरिहा तै मंद पीके माते रहिबे? सरगुजिहा तै विधुन होके नाचे रहिबे? भिलाई तोर लोहा के पानी मरगे? देवभोग तोर हीरा ह चोरी पड़गे? सोनाखान के वीर नारायण तै काय करत हस?

कवि का दृष्टिकोण सदैव आशावादी होता है क्योकि उसे मालूम है कि रात चाहे जितनी भी गहरी और काली हो पर किरणों की सौगात लेकर सूरज आ जरूर, आता है। तभी तो कवि ने लिखा है -’रे संगी आघू ठाढ़े अंजोर, घपटे अंधियारी देख के फोकट, झन भरमा मन तोर’। यदि मैं छत्तीसगढ़ के सुमधुर गीतकार श्री लक्ष्मण मस्तूरिहा के शब्दों में कहू तो कवि को विश्वास है कि-’’एक ना एक दिन इही माटी के पीरा रार मचाही रे।
नरी कटाही बैरी मन के, नवा सूरूज फेर आही रे’’

संग्रह प्रकाशन हेतु ललित जी को बधाई और कृति के समुचित सम्मान हेतु शुभकामना।

बीरेन्‍द्र सरल