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कहानी

फूलो

फगनू घर बिहाव माड़े हे। काली बेटी के बरात आने वाला हे।

जनम के बनिहार तो आय फगनू ह, बाप के तो मुँहू ल नइ देखे हे। राँड़ी-रउड़ी महतारी ह कइसनों कर के पाले-पोंसे हे। खेले-कूदे के, पढ़े-लिखे के उमर ले वो ह मालिक घर के चरवाही करत आवत हे।

फूटे आँखी नइ सुहाय मालिक ह फगनू ल, जनम के अँखफुट्टा ताय हरामी ह; गाँव म काकर बहू-बेटी के इज्जत ल बचाय होही?

फगनू ह सोचथे – वाह रे किस्मत! जउन आदमी ह हमर बहिनी-बेटी के, दाई-माई के इज्जत लूटथे; बड़े फजर ले हमला वोकरे पाँव परे बर पड़थे? अरे पथरा के भगवान! गरीब ल तंय काबर अतका लाचार बनाय होबे? फेर सोंचथे, भगवान ल दोश देना बेकार हे; न भगवान के दोश हे न किस्मत के; सब हमरे कमजोरी आय। सब ल जानथन, अउ जानबूझ के सहिथन। काबर सहिथन? इज्जत बेंच के जीना घला कोई जीना ए?

फगनू ह मनेमन सोंच डरे हे, अब तो वो ह ये गाँव म, जिहाँ इज्जत के संग कोनों जी नइ सकय, नइ रहय। ये गाँव म रहत ले कभू बिहाव नइ करय। फेर सोंचना सरल हे, करना कठिन हे; जहाज के पँछी ह आखिर जाही कहाँ? दाई ह घला तो आँखी मूँद दिस।

मालिक मन के खेले फांदा ह अइसने-तइसने नइ रहय, गरीब ह कतरो चलाकी करही, आखिर फंदिच् जाथे। केहे गे हे, पुरुश बली नहि होत है, समय होत बलवान।

गाँव के आबादी पारा म मालिक ह फगनू बर दू खोली के घर बना दिस। बसुन्दरा ल घर मिल गे, अउ का होना?

मालिक ह जात-सगा के एक झन टुरी संग फगनू के बिहाव घला करवा दिस। मालिक ल एक झन अउ कमइया मिल गे अउ फगनू ल घरवाली।

एक दिन फगनू ह बाप घला बन गिस। छुहिन-बरेठिन मन फगनू ल कहिथें – ‘‘अहा! कतिक सुंदर अकन नोनी आय हे बेटा, फकफक ले पंड़री हे; न दाई ल फबत हे, न ददा ल फबत हे, फूल सरीख हे, आ देख ले।’’

दाई बिलइ, ददा बिलवा, लइका ह फकफक ले पंड़री; अउ काला देखही फगनू ह? वो तो सब ल पहिलिच देख डरे हे; उठ के रेंग दिस।

लइका ह फूल सरीख हे, नाव धरा गे फूलो।

इही फूलो के काली बरतिया आने वाला हे।

दू खोली के घर, सड़क म मंड़वा गड़े हे। जात-गोतियार अउ पार वाले भाई मन कहाँ-कहाँ ले बाँस के जुगाड़ कर डरिन हे; आमा अउ चिरइजाम के डारा काँट के लाइन हें अउ सुंदर अकन मंड़वा छा दिन हे। मंड़वा तरी बने ठंडा-ठंडा लागत हे। इही ल कहिथे, हरियर मंड़वा।

मड़वा के बाजू म चूल हे, भात के अंधना ह सनसनावत हे, बड़े जबर कड़ाही म आलू-भाटा के साग ह खदबद-खदबद डबकत हे। साग के खुस बू म घर भर ह महर-महर करत हे।

आजेच् तेलमाटी, चुलमाटी अउ तेल चढ़े के नेंग होना हे, काली बरतिया आही। फूलो बेटी ह काली सगा बन जाही।

कोनों महतारी-बाप ह बाढ़े बेटी ल कब तक भला कोरा म बिठा के राखही? दू साल पहिलिच् ले सगा आवत हें, सरकारी नियम-कानून के अटघा नइ होतिस ते आज ले फगनू ह आजा बबा बन गे रहितिस। अउ फेर बेटी के बिहाव करना कोनों सरल काम तो नो हे? हाल कमाना, हाल खाना। लाख उदिम करिस, बेटी के बिहाव बर दू पइसा सकला जाय, फेर मंहगाई के जमाना, गरीब ह काला खाय, काला बंचाय? आज वोकर अंटी म कोरी अकन रूपिया घला नइ हे।

बहिनी-भाँटो मन के गजब सहारा हे फगनू ल। इही मन तो ढेड़हिन-ढेड़हा बने हें। दू एकड़ पुरखउती खेत हे उँखर; साल भर के खाय के पूर्ती अनाज हो जाथे। भतीजी के बिहाव बर फूफू ह गजब अकन जोरा करे हे; भाई के हालत ल तो जानतेच् हे। झोला भर सुकसा भाजी, काठा अकन लाखड़ी दार, पैली भर उरिद दार, अउ पाँच काठा चाँउर धर के आय हे। जउन सगा से जइसे बनिस, मदद करिन हें । वइसने पारा-मोहल्ला वाले मन घला मदद करिन हें; गाँव म एक झन के बेटी ह सबके बेटी होथे। गरीब के मदद गरीब ह नइ करही त अउ कोन ह करही? फगनू ल बड़ हल्का लागत हे।

पारा के बजनहा पार्टी वाले टूरा मन के अभी सीखती हे, दमउ-दफड़ा तो अब तइहा के गोठ हो गे हे, नवा-नवा बैंड बाजा चमकाय हें; अपनेच् हो के किहिन – ‘‘जादा नइ लेन कका, पाँच सौ एक दे देबे; फूलों के बिहाव म बजा देबों।’’

फगनू ह हाथ जोर के किहिस – ‘‘काबर ठट्ठा मड़ाथो बेटा हो, इहाँ नून लेय बर पइसा नइ हे; तुँहर बर कहाँ ले लाहू?’’

बजनिया मन कहिथें – ‘‘हमर रहत ले तंय फिकर झन कर कका, गाँव घर के बात ए, बस एक ठन नरिहर बाजा के मान करे बर अउ एक ठन चोंगी हमर मन के मान करे बर दे देबे; सब निपट जाही।’’

इही किसम ले सब के मदद पा के फगनू ह ये जग ल रचे हे।

भगवान के घला मरजी रिहिस होही; तभे तो मन माफिक सगा मिल गे। होवइया दमाद ह तो सोला आना हाबेच् ; समधी ह घला बने समझदार लगिस; बात ह एके घाँव म चटपिट सध गे।

पंदरही पीछू के बात आय। सांझ के समय रिहिस। फगनू मन माई-पिला ठंउके वोतकेच् बेर कमा के आय रहँय; समारू कका ह धमक गे, मुहाटिच् ले हुँत पारिस – ‘‘अरे! फगनू , हाबस का जी?’’

समारू कका के हाँका ल सुन के फगनू ह अकचका गे। हड़बड़ी म किहिस – ‘‘आ कका, बइठ। कते डहर ले आवत हस, कुछू बुता हे का?’’ खटिया डहर अंगठी देखा के कहिथे – ‘‘आ बइठ।’’

समारू ह कहिथे – ‘‘बइठना तो हे फेर ये बता, तंय एसो बेटी ल हारबे का? सज्ञान तो हाइच् गे हे, अब तो अठारा साल घला पूर गे होही। भोलापुर के सगा आय हें ; कहितेस ते लातेंव।’’

‘‘ठंउका केहेस कका, पराया धन बेटी; एक न एक दिन तो हारनच् हे। तंय तो सियान आवस, सबके कारज ल सिधोथस, कइसनों कर के मोरो थिरबहा लगा देतेस बाप, तोर पाँव परत हँव।’’

‘‘होइहैं वही जो राम रचि राखा, सब काम ह बनथे बइहा। तंय चाय-पानी के तियारी कर, फूलो ल घला साव-चेती कर दे; मंय सगा ल लावत हँव।’’

समारू कका ह सगा मन ल धर के बात कहत आ घला गे। फगनू ह सगा मन के बने मान-सनमान करिस, बइठारिस, चोंगी-माखुर बर पूछिस, समारू कका के अटघा धर के किहिस – ‘‘सगा मन ह कोन गाँव के कका?’’

जवाब देय बर सगच् ह अघुवा गे, किहिस – ‘‘हमन भोलापुर रहिथन सगा, मोर नाँव किरीत हे।’’ अपन बेटा कोती इशारा करके कहिथे – ‘‘ये बाबू ह मोर बेटा ए, राधे नाँव हे; सुने रेहेन, तुँहर घर बेटी हे, तब इही बेटा के बदला बेटी माँगे बर आय हंव।’’

फगनू ह अपढ़ हे ते का होइस, बात के एक-एक ठन आखर ल तउले म माहिर हे। सगा के बात ल सुन के समझ गे, सगा ह नेक हे। टूरी खोजइया मन के तो भाव बाढ़े रहिथे; कहिथे – ‘बछरू खोजइया तावन जी सगा’, तब कोनों मन कहिथे, ‘गरवा खोजे बर तो निकले हन जी सगा, तुँहर इहाँ पता मिलिस हे ते आय हाबन।’ सुन के फगनू के एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ जाथे, वाह रे इन्सान हो, बेटी ल जानवर बना डारेव? जब तुँहर मन म अइसन भाव हे तब पराया के बेटी के का मान अउ दुलार कर सकहू?

ये सगा ह बड़ नीक हे, किहिस हे, बेटा के बदला म बेटी खोजे बर आय हंव, कतेक सुदर अकन भाव हे सगा के? लड़का ह घला लायक दिखत हे, सगा ह ठुकराय के लाइक नइ हे।

फगनू ह तुरते मनेमन बेटी ल हार डरिस।

रहिगे बात लड़की-लड़का के मन मरजी के, घर गोसानिन के, उँखरो राय जरूरी हे।

सब के मन आ गे अउ रिस्ता घला पक्का हो गे।

सगा ह कहिथे – ‘‘जनम भर बर सजन जुड़े बर जावत हन जी सगा, हमर परिस्थिति के बारे म तो पूछबे नइ करेस, फेर बताना फरज बनथे। हम तो बनिहार आवन भइ, बेटी ह आज बिहा के जाही अउ काली वोला बनी म जाय बर पड़ही, मन होही ते काली घर देखे बर आ जाहू।’’

फगनू घला बात करे म कम नइ हे; बात के बदला बात, भात के बदला भात; किहिस – ‘‘बनिहार के घर म काला देखे बर जाबो जी सगा, हमूँ बनिहार, तहूँ मन बनिहार; चुमा लेय बर कोन दिन आहू , तउन ल बताव।’’

इही तरह ले बात बन गे अउ काली बरतिया आने वाला हे।

फगनू ह तरुवा धर के सोंचत हे; बने तो कहिथे फूलो के दाई ह – ‘बेटी ल बिदा करबे त एक ठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे, एक ठन संदूक ल नइ लेबे, नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे, सोना-चाँदी ल बनिहार आदमी का ले सकबो, बजरहू तो घला ले दे, लइका ह काली ले रटन धरे हे।’

का करे फगनू ह, सबो असामी मन तीर तो हाथ पसार के देख डरे हे, गरीब ल कोन पतियाही?

सेठ मन ह रहन रखे बर कहिथे, का हे वोकर पास रहन धरे बर?

मालिक के बात ल का बताय, सुन के खून खौल गिस। गोंदी-गोंदी काँट के कुकुर-कँउवा मन ल खवा देय के लाइक हे साले नीच ह। कहिथे – ‘जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।’

सब बात ल फूलो के दाई ल बता के फगनू ह बइठे हे तरुवा धर के।

एती ढेड़हिन-सुवासिन मन हड़बड़ावत हे – ‘अइ! बड़ बिचित्र हे दाई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।’

आज फूलो के बारात आने वाला हे; फगनू ह बड़ खुस हे। मंद-मँउहा के कभू बास नइ लेने वाला फगनू ह आज बिहने ले लटलट ले पीये हे; बिधुन हो के नाचत हे।

फूलो के चेहरा ह फगनू के नजरे-नजर म झूलत हे। कइसे चँदा कस सुंदर दिखत हे फूलो ह; नाक म नथनी झूलत हे, कान के झुमका अउ गोड़ के पैरपट्टी म सरग के परी कस लागत हे।

बड़ जबर संदूक ह घला वोकर नजर ले जावत नइ हे; लुगरा-पोलखा, क्रीम-पावडर, साबुन-तेल अउ नाना प्रकार के समान म भरे पड़े हे।

सब ल बड़ा अचरज होवत हे; फगनू ह मंद पी-पी के नाचत हे?

बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते?

जतका मुँहू वोतका गोठ।

फगनू ह नाचत-नाचत बेसुध हो के गिर गे। कोन का कहत हे; कइसे करत हे, का होवत हे, फगनू ल कुछू खबर नइ हे; वोकर कान म तो मालिक के विही गोठ ह टघले काँच कस ढरावत हे, – ‘जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।’

फूलो के चंदा कस चेहरा, चेहरा ऊपर झूलत नाक के नथनी, कान के झुमका अउ गोड़ के पैरपट्टी ल देखे के वोकर हिम्मत नइ हे।

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कुबेर