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कविता

बखत के घोड़ा

खावत हे, पियत हे
रातदिन मारा-मारी जियत हे
बिन लगाम दउड़त हे
बखत के घोड़ा।
रात हर दिन हो जाथे
दिन हर रात हो जाथे
बिन काम होय आराम
लागथे मनखे ल हराम
आज ये डहर
काल ओ डहर
ये शरीर बन जाथे
कोदो कस गरू बोरा
बखत के घोड़ा।
चलगे जेकर पांव के टापू
मुड़ के नई देखय पाछू
येहर अपन मंजिल पा लेथे
अपन जीवन म सुख के गीत गा लेथे
ये समय के फेर ये
ककरो बीच म कोई बनथे रोड़ा
बखत के घोड़ा।
मनखे हर मनखे के करत हे ढेर
बन जावत हे शेर
आज नईये कोई बनके सीधा बोकरा
डोकरा हर बन जात हे छोकरा
चार दिन के संगवारी दाई-ददा
परोसी हर दी ही काम सदा
प्यार के डोरी एक दिन झगरा म
दुश्मन बर बन जाथे डोरा।
बखत के घोड़ा।
श्यामू विश्वकर्मा
नयापारा डमरू
बलौदाबाजार