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कविता

बजारवाद के नाला म झन बोहावव

मिरिग मरिचका ल पानी समझके
झन ललावव,
अंधरा बन ‘बजारवाद’ के नाला म
झन बोहावव.
नई होवय गोरिया
चाहे कतको चुपर फेरन लबली
सब ल बतावव,
3 दिन म चंदवा के चुंदी जागही,
रेटहा मोटाही झन पतियावव,
अरबो रूपिया लूटत हे
झूठ अउ भरम के कारोबार म,
एखर चक्कर म पछीना के कमइ ल
झन गंवावव,
करिया-गोरिया जउन मिले हे
ओमा संतोस करेबर सीखव,
कखरो चोला के मजाक बना
भगवान के मजाक झन उड़ावव,
जउन चमकथे तउन जम्मो हीरा नै होवय
ये बात ल समझव,
बतर कीरा कस बजारवाद के
दीया म झन झपावव,
बहुत होगे सुनत ढेकाना परचा छपवाबे
नै तो भगवान फलाना कर दिही सुनत,
वा रे पापी जमाना धरम ल तो छोड़ दव
एला ब्यापार झन बनावव|
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कवि सुनिल शर्मा “नील”
थान खमरिया,बेमेतरा(छ.ग.)
7828927284
9755554470

3 replies on “बजारवाद के नाला म झन बोहावव”

सुघ्घर रचना हे जी
बधाई हो |

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