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कविता

बरखा गीद

बेलबेलहीन बिजली चमकै
बादर बजावै मॉंदर घूमके
नाचौ रे झूम झूमके

मात गे असढ़िया हॅ, डोले लागिस रूख राई
भूंइया के सोंध खातिर, दउड़े लागिस पुरवाई
बन म मॅजूर नाचे बत्तर बराती कस झूम के

सिगबिग रउतीन कीरा, हीरू बिछू पीटपीटी
झॉंउ माउ खेलत हे, कोरे कोर कॉंद दूबी
बरखा मारे पिचका भिंदोल के फाग सुन सुनके

खप गे तपैया सुरूज, खेत खार हरिया गे
रेटही डोकरी झोरी ल देख , जवानी छागे
जोगनी झॅकावै दीया भिंगुर सुर धरै ऑंखी मूंदके

भूंइया के कोरे ल मुड़ी, नांगर बइला धर किसान
निकल गे जी फुरफुंदी, फॉंफा संग बद मितान
सुन्ना होगे खोर गली लइका रोवथे माछी झूम गे

धमेन्द्र निर्मल

One reply on “बरखा गीद”

बरखा के जोरदार बिंब अउ नवा-नवा उपमा-उपमान पढ़ के आनंद आ गे। निर्मल जी बधाई।
कुबेर

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