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व्यंग्य

आन के तान

संगी हो! आजकाल मोला एक ठिक जबड़ भारी रोग हो गे हे। रोग का होय हे, मोर जीव के काल हो गे हे। रोग ये हे के मैं हर, आन कहत-कहत तान कहि पारथां, कोनो आन कहिथें त मैं हर तान समझ पारथों। पाछू, आठ महीना ले मोर कनिहा मा पीरा ऊचे लग गे। सोचेंव लापरवाही बने नोहय। कोनो डॉक्टर ला देखई देत हों। एक झिक कोन्टा-छाप डॉक्टर करा गेंव। देखथों ओकर नाक हर आलूगुण्डा कस फूले रहय। मैं सोंचेव जब ये हर अपने ‘नाक’ नई ओसका सकत हे त मोर कनिहा ला का मढ़ाही?
ओला तुरते छोड़ेंव अऊ आने डॉक्टर करा गेंव। मे केहेंव- ‘जोहार ले डॉक्टर बाबू!’ वो कथे- ‘मैं क्यों जोहारूंगा। यहां जोहारने बैठा हूं क्या?’ मै केहेंव ‘अइसे बात नई हे जी डॉक्टर। क्यों रिसाता है भई? मेरा जोहार झोंक लो, नाराज झिन होवव भई।’ ‘का होवत हे बताव?’ वो खिसियाय बरोबर कथे ‘छट्ठी होवत हे, गम्मत होवत हे। आ, कांके पानी पी ले।’
मैं सोंचेंव ये बूजा हर सनकीहा गतर लागथे। कहूं सूजी के जघा सूजा हुरस दी ही त आन के तान हो जाही। में उहां ले पल्लातान के भागेंव अऊ तीसर जघा गेंंव। उहां देखथों एक झिक खबसूरत डॉक्टरीन बइठे रहय। सुघ्घर सांगर-मोंगर दीखत रहय। मेंहा बने मया लगा के ओला बोलेंव- ‘ डॉक्टरीन बाई! मोर कनिहा मा, पाछू आठ महिना ले पीरा उसल गे हे। मैं हलाकान हो गे हंव। थोरिक देख देते बाई!’ वो कथे- ‘आठ महीना में दरद होना जच्चा और बच्चा दोनाें के लिए ठीक नहीं होता है। आपरेसन कराना होगा। जरा अपना कोंथा दिखाव।’ में अकबका गेंव। यहा का आन के तान होवत हे। मे केहेंव- ‘मैं माई लोगन नहीं हूं डॉक्टरीन! मेरा देहें नहीं उसला है। कनिहा उसला है। एकाक हाड़ा उसल गया होगा। मैं मरद जात हूं भई। मेरा कनिहा पीराता है। थोरिक एला सार देते कहत रहें डाक्टरीन बाई।’
‘क्या बोला’ तमक तो गे डाक्टरीन। घुस्सा मा ओकर नाक फूले-पेचके लगीस। उही करा ठौका एक झिक राउत हर तेंदू के बठेना धरे बइठे रहीस। डाक्टरीन हर उही बठेला ला धरीस अऊ फटाक ले मोर कनिहा मा जड़ दिस। ‘ये ददा रे!’ कहिके मेंहा कलबला गेंव। वो कथे-‘बड़ देर ले देखत हों, घेरी बेरी मोला बाई-बाई बोलत हस। क्या मैं तेरे घर काम करने वाली बाई हूं? या तेरी घरवाली हूं? या ब्यूटी पार्लर वाली हूं। जो कनिहा सारने को बोलता है। यू ईडियट, रॉस्कल, ब्लडी..!’ में बोलेंव- ‘ददा रे अतेक असन बीमारी हे मोला? कुछु जांच-ऊंच कराय ला परही का?’ ‘अपने दिमाग की जांच कराव। डॉक्टर को कनिहा सारने को बोलता है बेवकूफ!’
में अब समझेंव। में केहेंव- ‘वइसन बात नई हे मेडम जी!’ वो काय ”फूजियाथेरापी” कहिथे तऊन करे बर बोलेंव सुने हवं वोमा पीरा वाले जघा ला सारथें, सेंकथे। उही समझ के कहि पारेंव भई। तुम आन के तान समझ गेव। में हा काही अनीत नई कहे हंव। तहुं मन तो बिगर सोचे-समझे अपरेसन कराय बर बोल देव। न नर देखेव मादा। भइगे तुंहर मुंहु ले फट ले निकलथे अपरेशन कराव। तुंहर करा एके इलाज हे अपरेसन। जरूरत रहै के झन रहय-फेर फकत अपरेसन। तुमन मनखे संग कतका अतियाचार करथो। काबर? सिरीफ पइसा बर। पहिली कहंय-डाक्टर देंवता होथे। फेर आजकाल तो कतको डॉक्टर राक्षस हो गे हैं। कोनो अमीर ला मारतेव? मोला काबर मारेव? गरीब होय के कारन। जऊन दिन कहूं जनता हर तुमन ला बठेना मारे बर धर लीही तव? तब का होही, सोचे हव? सोचव। नई सोचे होहू त सोंचव डॉक्टरीन मेडम। नी तो एको दिन अलहन हो जाही।’

के.के. चौबे
गया नगर, दुर्ग

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