Categories
व्यंग्य

मंदू

जज सहेब हर बंधेज करे हे, हमला छै महीना बर कट्टो जुवाचित्ती, दारू-फारू, चोरी-चपाटी नई करना हे कहिके। छै महीना कटिस ताहन उम्मर भर लूटमार, चोरी अउ छोरी सप्लई बर तो कानूनी पट्टा मिल जाही।
जेलर सहेब के आघू म रजऊ ठेठवार अउ सुधु आके ठाड़ होगे। त लेजर हा तरी ले ऊपर निटोर के देखथे- ‘दू महीना आघू छोड़त हंव। वो चौरे उकील अउ परु ठेकादार तुंहर जबानत लीन हावे। चेत राहय दू महीना के भीतर तू मन ला ये साहर छोड़ देना हे।’ सिगरेट ला दू दम मारके डब्बा फेंकिस अउ मोठ अकन रजिस्टर निकालिस, दूनों के दसकत लेवत कथे- ‘परु ठेकादार के सेती वो विधायकजी हर छोड़े बर किहिसे। ऊंकर कहना हे, तुमन मतउना चाल ला छोड़व। ताहन जुआ-चित्ती अउ दू नम्बरी दारू बेचई घला बंद हो जाही।’ येकर बर तुमन ला दू महिना जिला जहेल म रहिके काम धंधा सीखे बर हे। मय समझथंव ऊंहा तो केऊ बखत रहि डारे हो, कोनो दिक्कत नई होही, ठीक हे?
‘हां सहेब रेहे तो हावन रजऊ थोरिक मेंछरावत कथे’ उहां तो सरग कस लागथे, कइसे सुधु? ‘सुधु घला हीही, होहो करत हुंकारू भरिस।’ दूनों भीतरे भीतर कुनमुनावत राहंय। वो रे जिला जहेल कतकोन झन तो पन्द्रा दिन म जकलाहा हो जाथे। भनभनात, सिनसिनहा खोली, भुसड़ी-ढेंकना, बसनाहा साग-भात, चाराें मुडा बजबजात कचरा, धंधाय कैदी मन के कलउर छी दू महीना कइसे पहाही। ऊंकरे जीव जान ही। जेलर मुचमुचईस- ‘सबो झन तुंहर ले हरान खा गेय हें। पुलुस नेता अउ ठेकादार मन ला हप्ता-दलाली खवाके जेमेर, जतका बेर रुपिया, गाहना, सईकिल, मुबाइल, चोराना अउ मंद पी-पी के आरा-पारा म फुंहरे-फुंहर बकना, जिहू-तिहू झन झगरा मताना, अउ ते अउ पुलुस, नेता, ठेकादार ला हप्ता खवाथन कहिके गोहार पारना- आरा-पारा, तीर-तिखार गंवई, सबके जी बिट्टा गेय हे।’
‘ककरो फिक्कर नइए सहेब, फेर विधायक अउ ठेकादार मन दगा दीन ये हमला सही नई जावत हे।’ रजऊ ऊपर संस्सी तीरत किहिस। सुधु घला मुंहू मटकावत किहिस- ‘हमरे भरोसा ऊंकर धंधा चलत हे अब हम सीट्ठा हो गेन। ठीक हे सहेब, अभी तो ऊंकरे चलती हे, देख लेबो।’
रिसाव झन जी जेलर सहेब, सुलहारिस। तुंहरे भलई बर करे गेय हे अउ फेर तुमन तो थाना, पुलुस अउ अदालत ल जेब म राखथव का? वो का गीद गाथो रजऊ?
दूनों झन फरनाय कस होके गाथे- ‘थाना, कहे जी हमन जाना आना जहेल हमर घर। नेता दरोगा नत्ता गोत्ता काके हमला डर। छुटबो फेर मिलबो, छुटबो फेर मिलबो हइया हई हई…’
‘हां, उही गीद बने सेधाय कस लागही जिला जहेल वाला मन ला।’
‘वो तो जउन हवै सहेब। फेर हमर जिनगी च हर दइूसर मन के जेब अउ संदूक म चलथे त पुलुस, अदालत ला कतेक जेब म राखबोन?’ सुधु चेथी खजुवावत किथे।
अच्छा हटाव ‘जेलर जी हर थोरिक दपकारिस।’ ‘जइसन बताय जही वसनेच करहू।’ कहूं फेर दारू, जुवा अउ लूटमार करेव, ते मां कसम रे दोगला हो, मियांर म उल्टा अरो के पनहीच पनही हकन हूं्…
‘बागबहरा थाना हवलदार तो उल्लूर मामला बनाय रिहिसे जनाब रजऊ थोरिक कपसत भुनभुनईस। वो चौबे उकील अउ तहसीलदार सन 76 हजार म सउदा होय हे। एक सौ इंकावन म दू-चार हाजिरी पेसी रेंग के मउज मारने का है जनाब। आप मन तो हमरे र्भलई बर केहेव। सोंचबो एको पारी नई जी (सुधु ल तिखारथे) सुधु हुंकारू भरत मूंड हलाथे अउ कहिथे- ‘जिला जहेल के लहुटत ले तो अदालती अंटेस घला पूर जाही।’
‘आंय! काय केहे? काय अंटेस?’ जेल मुंहू फार दीस
‘जज सहेब हर बंधेज करे हे, हमला छै महीना बर कहो जुवाचित्ती, दारू-फारू, चोरी-चपाटी नई करना हे कहिके।’
‘तहां ले?’ जेलर के मुंह पसर गे।
‘फेर काय हे सहेब जी’ सुधु मेंछराय कस रजऊ कोत मिलखियात कथे- ‘छै महीना कटिस ताहन उम्मर भर लूटमार, चोरी अउ छोरी सप्लई बर तो कानूनी पट्टा मिल जाही।’
‘अरे! लफंगी झन बघार उसने कइसे होही?’ जेलर गुरेरिस।
‘का सहेब जी, कमीसनेच बने चेत रथे। रजऊ बरकस बुधमान बरोबर छाती फूलों के कनिहा मटका के कथे- ‘तो बंधेज कागज ल कांछ मढ़वा के टांगबो उही बता ही सब धंधा कर सकथे।’
‘अरे अइसने म तो गदर मात जाही’ जेलर के माथा भन्नागे।
‘गदर कथस सहेब’ ‘फदर-फदर घला होही’ सुधु बाहिर कोत रेंगत कथे- ‘अब तो वो कला निधान, जनता सेऊक ला दिनमान पटके बेल्ठ अऊ चाकू चिखवाबो।’
थाना-तासील म भितरौंढ़ी देवइ बंद रजऊ तरेरथे- ‘अब तो बिधायक अऊ ठेकादार हम हमर पाछू किंजरही ही.. ही..’
दूनहो बिजाड़ जहेल मुहाटी कोत रेंगे धरिन। त जेलर एती ओती देखथे। तीर म कोनो नी राहय। ताहन अउहा-तउहा जाथे। दूनो के खांध म पाछू कोत हाथ मड़हाके किथे- ‘सुधु-रजऊ ले हटाव यार, घुस्सा थूकव जाव मजा करो।’
बड़े मुहाटी के रखवार दूनो सिपाही मन मुचमुचात सुधु रजऊ सन हात मिलाथे। सब अपन-अपन काम धंधा म भिड़ जाथे।
किसान दीवान
पो. नर्रा (बागबाहरा)
महासमुन्द

3 replies on “मंदू”

* जय जोहार ! संजीव भय्या !

** बियंग को पहले मैं ‘बी+यंग’ समझ गया था!

*** वैसे ई एकदम ठेठ छत्तीसगढ़ी भासा लाग रहल हे।’आरंभ’ पर एकर अनुवाद…?

**** बाकी सब ठीक !

छ्त्तीसगढ़ी म अतक गुतुर व्यंग, जेनला पढ़त होगे मन मतंग , छोड़त रहव भाई मन ऐसनहें अउ आनी-बानी के पतंग । जेनला पढ़ईया हों जावय बिन पिये मतंग । बने लागिस , बधई हो ,बधई ।
– आशुतोष मिश्र

Comments are closed.