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कविता

मंहू पढ़े बर जाहूं : कबिता

ये ददा गा, ये दाई वो, महूं पढ़े बर जाहूं।
पढ़-लिख के हुसियार बनहूं, तूंहर मान बढ़ाहूं॥
भाई मन ला स्कूल जावत देखथौं,
मन मोरो ललचाथे।
दिनभर घर के बुता करथौं,
रतिहा उंघासी आथे।
भाई संग मोला स्कूल भेजव, दुरपुतरी बन जाहूं।
ये ददा गा, ये दाई वो, महूं पढ़े बर जाहूं॥
बेटा-बेटी के भेद झन करव,
बेटी ला घलो पढ़ावव।
पढ़ा लिखा के आघू बढ़ावव,
थोरको झन लजावव।
काम-बुता संग पढ़हूं-लिखहूं, तुंहर हाथ बंटाहूं।
ये ददा गा, ये दाई वो, महूं पढ़े बर जाहूं॥
सीता-सावित्री, सती अनुसुइया,
मीरा-सदनकसाई।
दुरपती, सुलोचना, सबरी मइय्या,
दुर्गा, लक्ष्मीबाई।
इंदिरा, प्रतिभा, सुनीता, कल्पना जइसन मंय बन जाहूं।
ये ददा गा, ये दाई वो, महूं पढ़े बर जाहूं॥

नेमीचंद हिरवानी ‘शिक्षक’
मगरलोड, जिला धमतरी