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कविता

मनतरी अऊ मानसून

नांगर बइला बोर दे
पानी दमोर दे ।।

लहरा के बादर
मन ला ललचाथे
आवथे अऊ जावथे
किसान ला उमिहाथे
लइका मन भडरी कस
मटकावत गावथे
नांगर बइला बोर दे
पानी दमोर दे ।।

सनझा के घोसना
बिहिनिया बदल जथे
उत्ती के अवइया
बुड़ती मा निकल जथे
मनतरी अऊ मानसून
उलटा हे इंकर धुन
कहे मा लागथे डरभुतहा
कइसे धपोर दे ।।

दुनो के सिंह रासि
जब चाही तब गरजही
जिंहा ऊंकर मन लागही
तिहां तिहां बरसही
कोन का करथें ऊंखर
चाहे जादा या थोर दे
दुब्बर ला दू असाढ़
बगराये चाहे बटोर ले ।।

गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा