Categories
कविता

मन के दीया ल बार

कटय नहीं अंधियार
चाहे लाख दीया ल बार
होही जगजग ले अंजोर
मन के एक दीया ल बार।
जाति-धरम भाषा के झगरा बंद होक जाही
मया पिरीत के रूंधना चौबंद हो जाही
सावन कीरा कस गंजा जाही संसार…
सुने म न तो कान पिरावय न देखे म आंखी
देख सुन के कर नियाव, निकले मुख अमरित बानी
कबीर कहे हे उड़ जय थोथा राहय सुपा में सार…
तैंतीस कोटी देवी-देवता अउ कतको धरम-करम
खड़-खड़ के भगवान चुनेन नई जानेन हम मरम
हर मनखे भगवान के अंशी करले चिटिक सोच विचार…
कुआं, तरिया, नदी-नरवा, फेर कतको कन हे पियासा
पगुरा लेयन सब घाट घठौंदा पानी के दुरदसा
बनके भागीरथ बोहवा गंगाधार…
देर सबेर भूले भटके कतको बेर होय घर आय ल परथे
उमड़त-घुमरत अगाश ल भुइयां मं गोड़ मढ़ाय ल परथे
हम चेतन चेतावन जग ल काबर सहन करन अत्याचार…।

अनिल कुमार भतपहरी
श्री सुकाल सदन
कमल कालोनी
बलौदाबाजार