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कविता

मया के होरी





आवव संगी खेलबो सुग्हर होली,
एके जगा जुरिया के करबो हँसी ठिठोली।
कोनो ल लगाबो लाली कोनो ल पीला,
पिरित के रंग होथे गहिर नीला।
एसो के होरी म जुड़ा ले संगी,
अपनेच हिरदे के पीरा ल।
न ककरो घर बिरान रहय,
न कोनो लईका अनाथ होवय।
मया के होली पिरित के होली,
इही हमर पहिचान रहय।
मनखे मनखे मिलके गुलाब बनव ,
कोनो कतको पियय अईसने शराब बनव।
ककरो बर पाँव बनन,
त ककरो बर छाँव।
फेक दे अध्ररा के आगी ल,
जेन सुलगा के रखे हे अतेकन नाव।
मयारुक बर मया, दुलारू बर दुलार,
बईरी बर हितवा, तईसन आज सियान बनव।
त आवव संगी खेलबो सुग्हर होली,
एके जगा जुरिया के करबो हँसी अऊ ठिठोली।

विजेंद्र कुमार “अनजान”
नगरगाँव (रायपुर)






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