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कविता

माटी के पीरा

मोर माटी के पीरा ल जानव रे संगी,
छत्तीसगढ़िया अब तो जागव रे संगी।

परदेशिया ल खदेड़व इँहा ले,
बघवा असन दहाड़व रे,संगी।

मोर माटी के पीरा ल जानव रे संगी
छत्तीसगढ़ी भाखा ल आपन मानव रे संगी।

दूसर के रददा म रेंगें ल छोडव,
अपन रददा ल अपने बनाव रे संगी।

छोड़ के अपन महतारी ल दुख म,
दूसर राज झन जवव रे संगी।

मोर महतारी के पीरा ल, जानव रे संगी।
अपन महतारी भाखा ल, बगराव रे संगी।

मोर माटी के चिन्हारी ल, अब झन मिटाव रे संगी,
छत्तीसगढ़ी संस्करीती के पहिचान बनावव रे संगी।

जोजवा बरोबर अब कोनो ल, झन रिझाव रे संगी,
अब आघु अपन छत्तीसगढ़ ल बढाव रे संगी।

मोर माटी के पीरा ल तुमन जानव रे संगी,
अपन महतारी भाखा ल, गोठियाव रे संगी। गोठियाव रे संगी।

युवा कवि साहित्यकार
अनिल कुमार पाली, तारबाहर बिलासपुर छत्तीसगढ़।
प्रशिक्षण अधिकारी आई टी आई मगरलोड धमतारी।
मो.न.-7722906664,7987766416
ईमेल:- anilpali635@gmail.com