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कविता

मोर गांव कहां गंवागे

मोर गांव कहां गंवागे संगी, कोनो खोज के लावो।
भाखा बोली सबो बदलगे, मया कहां में पावों।
काहनी किस्सा सबो नंदागे, पीपर पेड़ कटागे ।
नइ सकलाये कोनों चंउरा में, कोयली घलो उड़ागे।
सुन्ना परगे लीम चंउरा ह, रात दिन खेलत जुंवा ।
दारु मउहा पीके संगी, करत हे हुंवा हुंवा ।
मोर अंतस के दुख पीरा ल, कोन ल मय बतावों
मोर गांव कहां …………………..
जवांरा भोजली महापरसाद के, रिसता ह नंदागे ।
सुवारथ के संगवारी बनगे, मन में कपट समागे ।
राम राम बोले बर छोड़ दीस, हाय हलो ह आगे ।
टाटा बाय बाय हाथ हलावत, लइका स्कूल भागे
मोर मया के भाखा बोली, कोन ल मय सुनावों ।
मोर गांव कहां…………………………
छानी परवा सबो नंदावत, सब घर छत ह बनगे।
बड़े बड़े अब महल अटारी, गांव में मोर तनगे।
नइहे मतलब एक दूसर से, शहरीपन ह आगे ।
नइ चिनहे अब गांव के आदमी, दूसर सहीं लागे ।
लोक लाज अऊ संसक्रिती ल, कइसे में बचावों
मोर गांव कहां……………………
धोती कुरता कोनों नइ पहिने, पहिने सूट सफारी
छल कपट बेइमानी बाढ़गे, मारत हे लबारी ।
पच पच थूंकत गुटका खाके, बाढ़त हे बिमारी ।
छोटे बड़े कोनों मनखे के, करत नइहे चिन्हारी ।
का होही भगवान जाने अब, कोन ल मय गोहरावों
मोर गांव कहां………………………….
जगा जगा लगे हाबे, चाट अंडा के ठेला ।
दारु भटठी में लगे हाबे, दरुहा मन के मेला ।
पीके सबझन माते हाबे, का गुरु अऊ चेला ।
लड़ई झगरा होवत हाबे, करत हे बरपेला ।
बिगड़त हाबे गांव के लइका, कइसे में समझावों
मोर गांव कहां गंवागे
संगी, कोनों खोज के लावो।।

महेन्द्र देवांगन “माटी”
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला — कबीरधाम (छ ग )
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