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कविता

मोर गांव मया-प्रेम के

मोर गांव हवे अबड़ बढिय़ा,
बोहवत नदिया, सुहावत तरिया।
मान मनऊला छोटे-बड़े के
‘भेदभाव’ करै न कोना ला
जिहां दया के तरिया छलकत हे
मया-प्रेम के नदिय बोहवत हे
घर-आंगन सब सजे-धजे
आना-जाना लोगन के ले हवे,
गली खोर अऊ संगी संगवारी
बइठे मंदिर के चौरा में संझौती
बने सियान संग बबा बिहारी।
बरजत लइकन ल श्याम बबा,
खेल धलेव बेरा हो मुंधियार
घर जाके सब पढ़त-लिखत रे
दाई-दा के ‘नाव’ गढ़व रे…।
करौ जाव मंदिर में दिया बत्ति
कहथे हमर सगुन बबा हर,
निकाल सुटी नई ते देवन दे बतत्ती।
दाई-माई के करो कइसे बड़ाई,
गली-खोर ल करत हे साफ-सफाई,
गोबर कचरा घुरवा के बांता हे,
गोबर-ानी के देवत छांटा हे,
नई रहे यहां कोनो ह रीता,
सकेलत हे दाई, बटोरत सरीता।
बहिनी-माई के मान बड़ाई,
करे घर द्वारी के साफ-सफाई,
नाकुन देखत हे कचरा घर में,
सास-बहु ल देथे ताना,
आवत देख के बूढ़ी दाई ल,
जोकड़ बबा हर गावत हे गाना।
‘सिरवत’ हे नाती ‘सिखावत’ हेनाना,
हंसी-ठिठोली के संग पारत हाना

अमित कुमार डौंडे
मामा-भांचा,
मुंगेली